Sunday, August 8, 2010

देविबा वाला की कला यथार्थ की नई पहचान तथा यथार्थ के प्रति नई दृष्टि का अनुभव कराती है

मास्को स्थित रूस के भव्य पैलेस म्यूजियम में अभी हाल ही में आयोजित 'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में देविबा वाला के काम को चुने जाने की जानकारी ने मुझे इस कारण से खासा रोमांचित किया क्योंकि देविबा की कलाकृतियों को मैंने उस साधक की तरह देखा/पहचाना है जो कुछ भी एप्रोप्रियेट नहीं करता | एप्रोप्रियेट करना जैसे उनका धर्म ही नहीं है | उनका धर्म जैसे अज्ञात की खोज है, उस अज्ञात की जिसके बारे में कोई भी न सचेत है और न उत्सुक | और इसीलिए वह किसी चीज़ को, किसी अनुभव को डिस्कवर नहीं करतीं; वह उस अनुभव को रोशनी में लाती हैं जो अब तक अँधेरे में छिपा था | देविबा ने अपने चित्रों के बारे में ख़ुद भी कहा है कि वह कुछ कहते नहीं हैं, बल्कि देखने वाले को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं | क्या सोचने के लिए प्रेरित करते हैं ? इसका जबाव न देविबा देती हैं, और न उनके चित्र | वास्तव में यही वह 'बात' है जो उनके काम को खास बनाती है | उनका काम एक पहेली से हमारा सामना कराता है : कभी हमने सोचा है, हम कहाँ होते हैं जब हम सोच रहे होते हैं ? बहुत सोच-विचार के बाद भी हम ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते हैं कि वह चुप्पी की जगह होती है, मौन का एक ठौर जहाँ बहुत से ख्यालों, बहुत सी स्मृतियों, बहुत से दिवास्वप्नों की आवाजाही होती रहती है; और हम अतीत-वर्तमान-भविष्य के भंवर में गोते लगते रहते हैं | वह है क्या या वहाँ होता क्या है, इसका सीधा-सपाट जबाव देने में हमें यदि उलझन होती है तो इसलिए क्योंकि हम तर्कशील मानसिकता में जकड़े होते हैं जो हमें अनुभव को अलग-अलग रूपों में देखने के लिए तैयार करती है | देविबा का काम हमें इस तर्कशील मानसिकता की जकड़न से बाहर आने को प्रेरित करता है | हम यदि उस जकड़न से बाहर आ पायेंगे, तभी देविबा के काम के सामने खड़े रह पायेंगे, अन्यथा उन पर एक उचटती सी नज़र डाल कर आगे बढ़ जायेंगे | 
 'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में देविबा वाला के साथ भारत के 11 और जिन युवा कलाकारों के काम को चुना गया, उनमें एक अर्पित बिलोरिया के काम से मैं परिचित रहा हूँ | इसे मैं अपना दुर्भाग्य ही मानूँगा कि बाकी 10 कलाकारों की कृतियों से मेरा परिचय नहीं है | मास्को बिनाले के लिए 35 देशों से आईं 2500 कलाकृतियों में भारत के जिन 12 युवा कलाकारों की 40 कृतियों को चुना गया, उनमें देविबा वाला और अर्पित बिलोरिया के साथ अजय राजपुरोहित, हितेंद्र भाटी, सुकेशन कंका, पद्मिनी मेहता, संजय सोनी, शरद भारद्वाज, सैयद अकबर अली, तेजसिंह जोसेफ, उमेश प्रसाद तथा विपुल प्रजापति के काम मास्को स्थित रूस के भव्य पैलेस म्यूजियम में सुशोभित हुए | मास्को बिनाले में देविबा के काम को चुने जाने को एक उदाहरण के रूप में देखते हुए मैं वहाँ प्रदर्शित काम की प्रखरता तथा स्तरीयता का आश्वस्त करने योग्य अनुमान लगा सकता हूँ |
देविबा वाला के काम के प्रति मेरी दिलचस्पी और आश्वस्ति का एक प्रमुख कारण यह रहा कि उनके काम को जब जब भी देखने का मौका मिला, मैंने अपनी सोच में अस्तित्व को एक अनूठे रूप में प्रस्फुठित होते हुए पाया | देविबा के चित्रों में 'अस्तित्व' की जो झलक 'दिखती' है उसे ज्ञान से एक्ज़्हास्ट करने की कोई कोशिश चित्रों में नहीं नज़र आती है, बल्कि उनमें एक रहस्य जैसा दिखता है | मुझे लगता है कि 'ज्ञान' यदि उनमें होता तो एक तरह के एपोरिया का अनुभव करता | देविबा ने जिस तरह से अपने चित्रों को आकार दिए हैं, उनमें ज्ञान असंभव ही होता और वह एक तरह की इनएक्सेसिबिलिटी का ही अनुभव करता | देविबा के चित्रों में मुझे अनुभूति ज्ञान की जगह लेती हुई नज़र आती है जो अपने आप में बुनियादी तौर पर अधूरापन महसूस कराती है | अनुभूति की अर्हता इसी बात में है कि अनुभूति के क्षण में हमें अपना समस्त ज्ञान अधूरा लगने लगता है | दरअसल इसी कारण देविबा की पेंटिंग्स मुझे एक चुनौती की तरह लगती हैं और मैं बार-बार उनके सामने आने को प्रेरित होता हूँ |

देविबा ने जो यह ख़ुद माना/कहा है कि उनके चित्र देखने वाले को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं, उसे लेकर मेरा अनुमान है कि उनका आशय थिंकिंग के फॉर्मलाइज्ड थिंकिंग में बदलने से नहीं होगा; क्योंकि वह चीज़ अनुभव में सोच की प्रक्रिया को वाधित करती है | अनुभव में सोच का अर्थ मेरे लिए यह है कि अनुभव करते हुए ही रिफ्लेक्ट करना कि मैं क्या कर रहा हूँ | एकदम शुरू में हो सकता है कि रिफ्लेक्शन साफ-साफ न हो सके, चीज़ों को हम बहुत कुछ इंट्यूटिवली एप्रिहेंड करते हैं, दो और दो चार के लगे-बंधे नियम के आधार पर नहीं करते | कल्पना अपनी छलांग के बीच के रास्ते को लाँघ जाती है | यह विज्ञान में भी होता है, और कला में भी | मुझे लगता है कि ये सब चीज़ें हमारे जीवन में महत्त्व रखती हैं, जिसका अहसास देविबा की कला कराती है | जीवन को प्रभावित करने वाली चीजों को, यानि यथार्थ को जानने/पहचानने के लिए किए गए प्रयत्नों में पाया गया कि यथार्थ की तद्भव पहचान संभव नहीं है | माना गया है कि हम जिस किसी भी माध्यम से यथार्थ को पहचानने का उपक्रम करते हैं उस माध्यम का होना ही यथार्थ के हमारे ग्रहण को, हमारी पहचान को अनिवार्यतः प्रभावित करता है |

देविबा के चित्रों का संदर्भ ले कर मैं कहना चाहूँगा कि उनमें हम जो कुछ जान या अनुभव कर पाते हैं वह कोई निरपेक्ष यथार्थ नहीं, हमारे माध्यम की प्रकृति से रूपांतरित यथार्थ होता है | दूसरे शब्दों में, यथार्थ की पहचान की हमारी प्रक्रिया ही हमारा यथार्थ हो जाती है; बल्कि तब वह यथार्थ की पहचान की नहीं, यथार्थ के सृजन की प्रक्रिया हो जाती है और हम उसी का संप्रेषण कर रहे होते हैं | देविबा के काम को जब-जब भी देखने का मौका मिला, तब-तब मैंने महसूस किया कि जैसे जब भी हम यथार्थ की कोंई नई पहचान, यथार्थ के प्रति किसी नई दृष्टि का अनुभव करते हैं तो वास्तव में समूचे यथार्थ का, यथार्थ के हमारे समूचे बोध का नया सृजन कर रहे होते हैं | इसीलिए देविबा की कृतियों से साक्षात्कार के बाद हम वही नहीं रह जाते, हमारा बोध वही नहीं रह जाता - और हम क्या हैं सिवा इस बोध के - जो पहले था ? अपने परिवेश सहित हम नये सिरे से रचे गए हो जाते हैं | देविबा की कला सिर्फ एक कलागत प्रयोग नहीं रह जाती; बल्कि वह हमारी संपूर्ण कला-दृष्टि, कहना चाहिए कि कला के माध्यम से हमारे संपूर्ण यथार्थ-बोध की नयी रचना कर देती है | इसीलिए देविबा की कला एक दर्शक के रूप में हमें आश्वस्त भी करती है और हमारे सामने चुनौती भी प्रस्तुत करती है |
[ आलेख के साथ दिए गये चित्र
'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में प्रदर्शित देविबा वाला की पेंटिंग्स के हैं | ]