मध्य प्रदेश के शाजापुर में 1978 में जन्में प्रेमेन्द्र ने इंदौर के इंस्टिट्यूट ऑफ फाइन आर्ट से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | पिछले एक दशक से वह इंदौर, उज्जैन, जबलपुर के साथ-साथ दिल्ली व मुंबई में समूह प्रदर्शनियों में भाग लेते रहे हैं | दिल्ली व मुंबई में उन्होंने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियां भी की हैं | दिल्ली व मुंबई में प्रदर्शित हुए उनके चित्रों को दूसरे देशों के कला प्रशंसकों व प्रेक्षकों ने भी देखा तथा सराहा | इसी सराहना के चलते प्रेमेन्द्र के चित्र जापान, अमेरिका व जर्मनी के निजी संग्रहालयों तक पहुचें हैं | त्रिवेणी कला दीर्घा में हाल ही में हुई उनके चित्रों की प्रदर्शनी, नई दिल्ली में उनकी दूसरी तथा कुल मिलकर तीसरी एकल प्रदर्शनी थी |
प्रेमेन्द्र अपने चित्रों में 'बाहर' की ओर नहीं, बल्कि 'भीतर' की ओर देखते हैं | उनके चित्रों में दीख पड़ने वाले रंग-रूपाकारों का सरोकार किसी बाह्य दृश्य-सत्ता से उतना नहीं जितना उनके अंतर्मन में जन्म ले रहे रूपाकारों से प्रेरित जान पड़ता है | अपने चित्रों में उन्होंने वस्तुओं को वस्तुओं की तरह नहीं पकड़ा है, बल्कि अपने अंतर्मन की किन्हीं सजीव भाव-सत्ताओं की छायाओं की तरह पकड़ा है | इस प्रयास में प्रेमेन्द्र किसी मानवीय या सामाजिक सच्चाई को यथार्थ की शक्ल नहीं देते, बल्कि उस मानवीय या सामाजिक सच्चाई को अन्वेषित करने में अपनी उत्कट लालसा का गति-चित्र पेश करते हैं | इसी से उनके चित्रों में एक प्रकार का गत्वर प्रवाह मिलता है | उनके रंग स्थिर कैनवस पर चिपके हुए नहीं लगते, बल्कि इधर-उधर बेचैन या खुश-खुश डोलते से नज़र आते हैं; उनकी रंग-रेखाओं व रंग-रूपाकारों का कैनवस के 'स्पेस' पर विभाजन एक संतुलन की सृष्टि भर नहीं करता, बल्कि एक संतुलित फ्रेम में किसी गतिशील अनुभव केंद्र की ओर खिसकता- बढ़ता लगता है |
प्रेमेन्द्र ने अपने चित्रों की प्रदर्शिनी को 'प्रकृति की छाया' शीर्षक दिया है | इससे भी समझा जा सकता है कि प्रेमेन्द्र के कलाकार का मूल और उनकी विशिष्टता यही है कि वे पहले तो जीवन व समाज के भौतिक और स्थूल पक्ष को चुनते हैं, और फिर उसे अमूर्त रूपाकारों में पाना चाहते हैं | प्रेमेन्द्र की रचनात्मक ऊर्जा उनके कला-व्यक्तित्व के इस संघर्ष से ही उत्पन्न होती है | उनके चित्रों में पाई जाने वाली गतिशीलता का यही राज है जो अक्सर उनके चित्रों को एक पारदर्शिता प्रदान करती है : कैनवस पर रंग की सतहें गहरी हो उठती हैं और गहराई सतह पर चमकने लगती है | उनमें स्थिरता और प्रवाह एक साथ है | इस मूल द्वंद्व की चेतना जहाँ उनके चित्रों में तेजी से उभरती है वहाँ वे अत्यंत सजीव लगते हैं; जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ द्वंद्व से थकित चेतना का अवसाद एक भावुकता में बदल जाता है और प्रेमेन्द्र अनायास 'लिरिकल' हो उठते हैं | प्रेमेन्द्र का यह द्वंद्व अभी उतार पर नहीं है, और शायद इसी कारण उनके साथ इस बात का खतरा फ़िलहाल नहीं दिखता है कि वे अपने आपको दुहराने लगेंगे |
प्रेमेन्द्र के कुछेक चित्र आप यहाँ भी देख सकते हैं :