Friday, October 30, 2009

नंद कत्याल ने अपने नए चित्रों में जैसे अपनी स्मृतियों को जाँचा परखा है

नंद कत्याल ने आर्ट हैरिटेज कला दीर्घा में 'फ़ोर्म्स दैट लास्ट थ्रू टाइम' शीर्षक से प्रदर्शित अपने नए चित्रों में गुजरे समय की स्मृतियों को जिस तरह उकेरा है, उन्हें देखते हुए 'उत्तर - उत्तर आधुनिकता' पर व्यक्त किये गए उनके विचार मुझे सहज ही याद आये, जिनमें उन्होंने कहा था कि आधुनिक कलाकार हमेशा और आगे जाने की कोशिश करता रहता है | वह तभी तक आधुनिक रह पाता है जब तक हर नए काम में नया जन्म ले | शास्त्रीयता में बंधा कलाकार विचारधाराओं और सांस्कृतिक इतिहास की मान्यताओं के स्वीकार में रहता हैं | उसे अपने माध्यम और उसे बरतने की प्रक्रिया की परंपरा के भीतर रहकर ही लयात्मक का स्वरूप खोजना पड़ता है | नंद कत्याल का कहना था कि रचनात्मक कलाकार पुरानी कृतियों को याद करता है और अपनी यादों को जाँचता परखता है | स्थापित विचारधाराओं, उनके प्रस्तुतीकरण और शैलियों की मान्यता पर वह सवालिया निशान लगाता है | सांस्कृतिक इतिहास के दबाव में पैदा हुई ग्रंथियों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठने की पुरजोर कोशिश करना उसकी प्रकृति है |
नंद कत्याल का कहना था कि जो कुछ अव्यक्त है और अभिव्यक्ति से परे है, उसे लगातार प्रेरित करता रहता है ताकि नए की रचना हो सके | यह नया ही प्रेम और स्नेह का विकास है; हालाँकि कलाकार को अपने प्रेम की रूपंकरता और स्वरूप के बारे में खुद पूरी जानकारी नहीं होती - और वह अपने कैनवस पर इसी की खोज में डूबा रह जाता है | यही वह मुकाम है जहाँ कुछ घटने लगता है, घटनाचक्र का अपना तर्क रूप लेने लगता है | किसी मान्यता प्राप्त विचारधारा की बंदिशों से आजाद होकर ही ऐसा होता है और अनुभूत तब साकार होने लगता है | कभी - कभी कुछ घट जाता है जहाँ अपार संतोष एवं आनंद आकार ले लेता है |
नंद कत्याल का मानना और कहना था कि अनुभूतियों के साकार होने की कोई सीमायें नहीं होतीं | परिचित, अपरिचित या काल्पनिक के दिगम्बरी अनुभव पर कलाकार का कोई बस नहीं है और सब कुछ उसी के जरिये कैनवस पर घटित होता जाता है - शायद यही आधुनिक है | उत्तर आधुनिकता हमेशा आधुनिकता में ही मौजूद रहती है | रचनात्मकता की जद्दोजहद में डूबा हुआ कलाकार अपने निजी स्वभाव को खोजता रहता है और निजत्व की पहचान करते ही मूक हो जाता है | अव्यक्त किसी कदर व्यक्त हो जाता है | नंद कत्याल का निष्कर्ष था कि इस कशमकश में आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के सन्दर्भ बिल्कुल ही बेमानी हैं |
नंद कत्याल के इन विचारों को याद करते हुए आर्ट हैरिटेज कला दीर्घा में प्रदर्शित उनके नए चित्रों को देखना मेरे लिए एक खासा दिलचस्प अनुभव रहा |



Saturday, October 24, 2009

सैफ़रन आर्ट की वेबसाईट में शामिल होने वाले सबसे कम उम्र के चित्रकार अर्पित बिलोरिया के चित्रों की सहजता में गहरे भाव - बोध का आभास होता है

अहमदाबाद के अर्पित बिलोरिया के काम को व्यापक जाँच परख से गुजरने के बाद अंततः सैफ़रन आर्ट की सूची में शामिल होने की स्वीकृति मिल गई है | सैफ़रन आर्ट की वेबसाईट पर आने के कारण अर्पित बिलोरिया का काम अब अंतर्राष्ट्रीय कला प्रेक्षकों तथा कला प्रेमियों के लिए भी देख पाना संभव हो सकेगा | भारतीय कला में दिलचस्पी रखने वाले अंतर्राष्ट्रीय कला प्रेक्षकों व कला प्रेमियों के बीच सैफ़रन आर्ट की अच्छी पहचान व प्रतिष्ठा है | सैफ़रन आर्ट ने पिछले करीब एक दशक की अपनी सक्रियता में भारतीय कलाकारों के काम को अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में परिचित कराने, उन्हें प्रतिष्ठा दिलाने तथा उन्हें बिकवाने का उल्लेखनीय योगदान दिया है | दरअसल, इसी योगदान के कारण सैफ़रन आर्ट को भारतीय पहचान की एक ग्लोबल आर्ट कंपनी के रूप में देखा/पहचाना जाता है | यही वजह है कि सैफ़रन आर्ट की कलाकारों की सूची में शामिल होने का हर भारतीय कलाकार सपना देखता / रखता है | इसी सपने को देखते/रखते हुए अर्पित बिलोरिया ने करीब एक वर्ष पहले सैफ़रन आर्ट की कलाकारों की सूची में शामिल होने के लिए आवेदन किया था | सैफ़रन आर्ट की फैसला करने वाली टीम के लोगों ने पिछले एक वर्ष में तीन-चार बार अर्पित से बात की और न सिर्फ उनके नए पुराने काम को सिलसिलेवार तरीके से देखा - परखा, बल्कि उनसे बात करके कला को लेकर तथा काम करने के उनके तरीके को लेकर उनके विचारों को भी जाना - समझा; और व्यापक जाँच - परख के बाद एक  कलाकार के रूप में उन्हें कलाकारों की अपनी सूची में शामिल करने के योग्य पाया |

सैफ़रन आर्ट ने हाल - फ़िलहाल के वर्षों में जिन कलाकारों को चुना है, उनमें अर्पित बिलोरिया अहमदाबाद के अकेले कलाकार हैं | इस आधार पर कहा जा सकता है कि अर्पित बिलोरिया के जरिये अहमदाबाद ने बहुत समय बाद सैफ़रन आर्ट में जगह प्राप्त की है | सैफ़रन आर्ट में कलाकारों की सूची को देखने पर हम यह भी पाते हैं कि वहाँ अर्पित बिलोरिया सबसे कम उम्र के चित्रकार हैं | यह तथ्य युवा चित्रकारों में अर्पित बिलोरिया की एक अलग पहचान का सुबूत भी देता है और उसे रेखांकित भी करता है | 1980 में जन्में अर्पित ने अहमदाबाद के सी एन कॉलिज ऑफ फाइन आर्ट्स से कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की है | अर्पित एक अत्यंत सक्रिय और प्रयोगशील कलाकार हैं | उनकी सक्रियता और प्रयोगशीलता का ही सुबूत है कि पिछले तीन - चार वर्षों में उन्होंने अहमदाबाद और बड़ौदा के साथ - साथ दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद, पटना, जयपुर, वाराणसी, उदयपुर, भोपाल, कालीकट जैसे देश के प्रमुख कला केन्द्रों में अपने काम को प्रदर्शित तो किया ही है; अपनी सक्रियता को विविधता भी दी है | अर्पित ने अपनी कला यात्रा स्कल्पटर के रूप में शुरू की थी, लेकिन फिर जल्दी ही वह पेंटर हो गए | उन्होंने इंस्टालेशन भी किया | इसी वर्ष मई - जून में थाने कला भवन में उन्होंने शाम पहपालकर व देविबा वाला के साथ मिलकर थर्मोकोल, नायलोन स्ट्रिंग्स तथा प्रोजेक्टर्स जैसी चीजों से जो एक इंस्टालेशन तैयार किया था, उसकी कला जगत में खासी धूम रही थी | देविबा वाला के साथ उन्होंने अहमदाबाद में वर्वे नाम के एक कला - ग्रुप की स्थापना की है|
अर्पित ने अपने चित्रों में काले रंग का प्रयोग तमस तत्त्व के रूप में किया है | अपने केनवस उन्होंने बिल्कुल सफ़ेद और खाली छोड़े हैं, लगता है कि जैसे उन्होंने भावनाओं व विचारों की आवाजाही के लिए जगह बनाई है और काले रंग के विभिन्न शेड्स के बहुत थोड़े से / सीमित से उपयोग से उन भावनाओं व विचारों को प्रेरित करने का जैसे 'मौका' दिया है | काले रंग के प्रयोग को इसीलिए हमनें तमस तत्त्व के रूप में देखा / पहचाना है| यही तत्त्व उनके चित्रों को एक दार्शनिक भावभूमि देता है | अर्पित के चित्रों में व्यक्त होने वाली दार्शनिकता विचार - बहुल न होकर अनुभूति - जन्य तथा संवेदनात्मक है; और उनके चित्रों की अनुभूति व संवेदना इतनी गहरी है कि उसे सहजता से समझ पाना कठिन भी होता है | उनके चित्रों में व्यक्त होने वाली अनुभूति व संवेदना 'जो है' और 'जो नहीं है' के बीच आवाजाही - सी करती दिखती है | उनके चित्रों में हालाँकि सहजता दिखाई पड़ती है लेकिन उस सहजता में गहरे भाव - बोध का आभास होता है | सहज और सामान्य से 'दिखने' वाले अर्पित के चित्रों में सूक्ष्मतम संवेदनाओं की वृहद अभिव्यंजना दिखाई पड़ती है |
अर्पित बिलोरिया के कुछेक चित्रों को आप यहाँ भी देख सकते हैं :












































Monday, October 19, 2009

प्रेमेन्द्र सिंह गौड़ ने अपने चित्रों में वस्तुओं को अपने अंतर्मन की किन्हीं सजीव भाव-सत्ताओं की छायाओं की तरह पकड़ा है

इंदौर के प्रेमेन्द्र सिंह गौड़ के अभी हाल में नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में प्रदर्शित चित्रों को देखकर जो पहला अनुभव होता है वह यह कि आकृतिमूलक चित्रकार न होते हुए भी प्रेमेन्द्र अमूर्तन के चित्रकार नहीं हैं | यह अनुभव प्रेमेन्द्र की चित्र-रचना की मूल बनावट और उसके स्वभाव को समझने में एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत भी साबित हो सकती है | प्रेमेन्द्र अभी अमूर्तन की उस सीढ़ी पर हैं जहाँ वह उन्हें एक नए अनुभव-संसार में प्रवेश करने और उस अनुभव-संसार को रचना-संसार में रूपांतरित करने को प्रेरित करती है | ऐसा लगता है कि जैसे प्रेमेन्द्र कुछ 'ठोस' कहना चाहते हैं | हालाँकि उनके चित्र 'उस कुछ' के कहने की बनिस्बत 'उस कुछ' की खोज के दस्तावेज ज्यादा मालूम पड़ते हैं | उनके चित्रों के पीछे कार्यरत एक बेहद उग्र बेचैनी का आभास मिलता है; उनके गहरे रंग अपने भीतर कोई हुई शांत आग छिपाये लगते हैं; उनकी रेखाकृतियाँ बार-बार जैसे एक ही विलम्बित लय के तीव्र खंडों को लपेटकर रखती हुई प्रतीत होती हैं | लेकिन इस आग और उग्र बेचैनी के बावजूद कहीं कोई एक सीमा-रेखा है जो प्रेमेन्द्र को उनकी अनुभूति में निहित अराजकता के संसार से बचाये रखती है | उनके चित्रों की सफाई; रंग-स्पर्श से झलकने वाली कोमलता, आत्मीयता और अंतरंगता; आकृतियों का सहज लयात्मक संतुलन उनकी कला के गंभीर आत्म-संयम का ही संकेत देते हैं |
मध्य प्रदेश के शाजापुर में 1978 में जन्में प्रेमेन्द्र ने इंदौर के इंस्टिट्यूट ऑफ फाइन आर्ट से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | पिछले एक दशक से वह इंदौर, उज्जैन, जबलपुर के साथ-साथ दिल्ली व मुंबई में समूह प्रदर्शनियों में भाग लेते रहे हैं | दिल्ली व मुंबई में उन्होंने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियां भी की हैं | दिल्ली व मुंबई में प्रदर्शित हुए उनके चित्रों को दूसरे देशों के कला प्रशंसकों व प्रेक्षकों ने भी देखा तथा सराहा | इसी सराहना के चलते प्रेमेन्द्र के चित्र जापान, अमेरिका व जर्मनी के निजी संग्रहालयों तक पहुचें हैं | त्रिवेणी कला दीर्घा में हाल ही में हुई उनके चित्रों की प्रदर्शनी, नई दिल्ली में उनकी दूसरी तथा कुल मिलकर तीसरी एकल प्रदर्शनी थी |
प्रेमेन्द्र अपने चित्रों में 'बाहर' की ओर नहीं, बल्कि 'भीतर' की ओर देखते हैं | उनके चित्रों में दीख पड़ने वाले रंग-रूपाकारों का सरोकार किसी बाह्य दृश्य-सत्ता से उतना नहीं जितना उनके अंतर्मन में जन्म ले रहे रूपाकारों से प्रेरित जान पड़ता है | अपने चित्रों में उन्होंने वस्तुओं को वस्तुओं की तरह नहीं पकड़ा है, बल्कि अपने अंतर्मन की किन्हीं सजीव भाव-सत्ताओं की छायाओं की तरह पकड़ा है | इस प्रयास में प्रेमेन्द्र किसी मानवीय या सामाजिक सच्चाई को यथार्थ की शक्ल नहीं देते, बल्कि उस मानवीय या सामाजिक सच्चाई को अन्वेषित करने में अपनी उत्कट लालसा का गति-चित्र पेश करते हैं | इसी से उनके चित्रों में एक प्रकार का गत्वर प्रवाह मिलता है | उनके रंग स्थिर कैनवस पर चिपके हुए नहीं लगते, बल्कि इधर-उधर बेचैन या खुश-खुश डोलते से नज़र आते हैं; उनकी रंग-रेखाओं व रंग-रूपाकारों का कैनवस के 'स्पेस' पर विभाजन एक संतुलन की सृष्टि भर नहीं करता, बल्कि एक संतुलित फ्रेम में किसी गतिशील अनुभव केंद्र की ओर खिसकता- बढ़ता लगता है |
प्रेमेन्द्र ने अपने चित्रों की प्रदर्शिनी को 'प्रकृति की छाया' शीर्षक दिया है | इससे भी समझा जा सकता है कि प्रेमेन्द्र के कलाकार का मूल और उनकी विशिष्टता यही है कि वे पहले तो जीवन व समाज के भौतिक और स्थूल पक्ष को चुनते हैं, और फिर उसे अमूर्त रूपाकारों में पाना चाहते हैं | प्रेमेन्द्र की रचनात्मक ऊर्जा उनके कला-व्यक्तित्व के इस संघर्ष से ही उत्पन्न होती है | उनके चित्रों में पाई जाने वाली गतिशीलता का यही राज है जो अक्सर उनके चित्रों को एक पारदर्शिता प्रदान करती है : कैनवस पर रंग की सतहें गहरी हो उठती हैं और गहराई सतह पर चमकने लगती है | उनमें स्थिरता और प्रवाह एक साथ है | इस मूल द्वंद्व की चेतना जहाँ उनके चित्रों में तेजी से उभरती है वहाँ वे अत्यंत सजीव लगते हैं; जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ द्वंद्व से थकित चेतना का अवसाद एक भावुकता में बदल जाता है और प्रेमेन्द्र अनायास 'लिरिकल' हो उठते हैं | प्रेमेन्द्र का यह द्वंद्व अभी उतार पर नहीं है, और शायद इसी कारण उनके साथ इस बात का खतरा फ़िलहाल नहीं दिखता है कि वे अपने आपको दुहराने लगेंगे |
प्रेमेन्द्र के कुछेक चित्र आप यहाँ भी देख सकते हैं :






















 

 

 

Wednesday, October 14, 2009

जल सोचता है, अनुभव करता है और अभिव्यक्त भी करता है

गोवा-मुंबई की हाल की यात्रा में समुद्रों में जल का जो इंद्रधनुषी रूप देखने को मिला, उससे एकबार फिर यह समझ में आया कि जल को क्यों ऋषियों ने 'आपो ज्योति रसोsमृतम्' यानि ज्योति, रस और अमृत कहा था; और जल क्यों स्वभाव की निर्मलता और पारदर्शिता के उपमान के साथ-साथ स्वच्छंदता और विद्रोह के प्रतीक के रूप में भी देखा/पहचाना गया है; और क्यों जल के पवित्र रूप - उसमें निहित आध्यात्मिकता, प्रेम, सौन्दर्य, क्रीड़ा और सहजता को दुनिया की विभिन्न कलाओं में सृजनात्मक अभिव्यक्ति मिली है | जापान के शोधकर्ता डॉक्टर मसारू ईमोटो की खोज के बारे में पिछले दिनों जब पढ़ा था कि जल में प्राण, मन व मस्तिष्क है; वह सोचता है, संवेगित होता है और अभिव्यक्त भी करता है तो सहसा विश्वास नहीं हुआ था | गोवा-मुंबई में लेकिन डॉक्टर मसारू ईमोटो की बात समझ में भी आई और सच भी लगी | समुद्र इससे पहले हालांकि कन्याकुमारी और चेन्नई में भी देखे हैं, और 'जल ही जीवन है' से पहले भी सहमत रहा हूँ - लेकिन गोवा-मुंबई में जल और जीवन के रिश्ते की व्यापकता को पहली बार समझा   है |   
वैदिक वांग्मय में, उपनिषदों में और भारतीय दर्शन की शाखाओं में जल को सृष्टि के एक महत्वपूर्ण पदार्थ के रूप में सर्वत्र वर्णित और परिभाषित किया गया है | वैदिक वांग्मय में सृष्टि विज्ञान  का विवेचन करते हुए जल को सृष्टि के उदगम अर्थात विसृष्टि की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण उपादान के रूप में बताया गया है जबकि सृष्टि के बाद पंचभूतों में से एक भूत के रूप में उसका जो स्थान है उसका विवेचन सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि सभी दर्शनों में विस्तार से हुआ है | जहाँ गोपथ ब्राह्मण ने उसका सृष्टि के उपादान के रूप में वर्णन करते हुए उसे भृगु और अंगिरा के संघात के रूप में आदिम तत्त्व की तरह विवेचित किया है, वहीं दर्शनों ने उसे केवल द्रव्य या पदार्थ माना है |
सांख्य आदि दर्शनों ने सृष्टि के उदगम की जो प्रक्रिया बताई है, उसके अनुसार अव्याकृत कारण ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई फिर महत्त्व, फिर अहंकार, फिर पंचतन्मात्रा और फिर पंचभूत व इन्द्रिय | पंचभूतों में जो जल है वह द्रव्य है | जबकि आदिसृष्टि के रूप में जिस जल का उल्लेख किया गया है वह सूक्ष्म तत्त्व है जिसमें सुनहरा अंडा या कॉस्मिक ऐग पैदा होता है | उस अंडे को हिरण्यगर्भ भी कहा गया है | चूंकि सारी सृष्टि उस अंडे से पैदा हुई है अतः उसी में पंचभूतों की उत्पत्ति भी आ जाती है | इससे पूर्व जो प्रथम अप् तत्त्व था, जिसमें ब्रह्मा ने बीज बोया वह सूक्ष्म तत्त्व के रूप में पहली सृष्टि कहा ही जा सकता है | यही रहस्य है जल को अवेग सृष्टि कहने का तथा समस्त जगत के जलमय होने का |
तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि ने जब जल को ही अन्न कहा, तो निश्चित रूप से उसके मन में केवल तत्त्व-चिंतन ही था | जल को एक व्यापक भूमिका देकर वह कहता है - आपो वा अन्नम्  |  ज्योतिरन्नादम्  |  अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्  |  ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिता |     ( यानि जल ही अन्न है, ज्योति आनंद है | जल में ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योति में     जल | ) गीता में यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न का उल्लेख है | इस प्रकार जल ही वह तत्त्व है जो धुलोक से पाताल तक व्याप्त है और अन्य तत्त्वों के शोषक रूप को प्रशमित करता है |
स्पष्ट है कि जल सिर्फ पानी नहीं है | वह रस है | सृष्टि में जो भी सौन्दर्य है, कान्ति है, दीप्ति है - वह इसी रसमयता के कारण है | स्थूल जल से शरीर का पोषण होता है और रस से आत्मा का | मनुष्य की कान्ति, पुष्प के पराग, वृक्ष की छाल में रस ही विधमान है | इस रस का सूखना मृत्यु की ओर बढ़ना है | इसीलिए शास्त्रों में रसमयता पर बल दिया गया है | जो रसमय होगा, वही जलमय होगा | भारतीय मनीषियों ने इसीलिए कहा है कि किसी को जल से वंचित नहीं करना चाहिए -
                         तृषितोमोहमायाती मोहात्प्राणं विमुच्यती |
                         अतः सर्वास्ववस्थासु न व्कचिद्वारिवारयेत् ||
जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है | मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है | सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य है | जब रहीम 'बिन पानी सब सून' कहते हैं तो उनका आशय किसी के तिरस्कार व अपमान के निषेध से भी है | पानी न देना और किसी का पानी उतर लेना - दोनों ही मानवता के विरूद्व है क्योंकि सब की सत्ता जल में है | ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है | सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं | इसीलिए कहा गया है -  सर्वमापोमयं जगत् |

शायद यही कारण हो कि जल के अनंत रूपों ने मानव मन को अजाने काल से ही मोहित किया हुआ है | कलाकार तो जल के विविधतापूर्ण रूपों के साथ कुछ ज्यादा ही संलिप्त रहे हैं | अजंता की गुफाओं के भित्ति-चित्रों के चितेरे हों या जैन, मुग़ल, राजपूत और पहाड़ी शैली के चित्रकार हों और या समकालीन कला के प्रयोगधर्मी कलाकार हों - सभी ने जल के अलग-अलग रूपों को अपनी-अपनी तूलिकाओं से सृजित किया है, क्योंकि वही तो सृष्टि का एकमात्र 'आदि-तत्त्व' है | गोवा में समुद्र के किनारे घूमते और उन किनारों पर बसी 'दुनिया' को देखते/समझते हुए इस सच्चाई से एकबार फिर सामना हुआ | गोवा-मुंबई में विश्वास हुआ कि जल जैसे सोचता भी है, अनुभव भी करता है और अभिव्यक्त भी करता है | जल के सोचने, अनुभव व अभिव्यक्त करने की कुछ बानगियां मैंने अपने कैमरे में भी कैद की हैं, जिनमें से कुछ यहां आप भी देख सकते हैं |