भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन के अनेक गूढ़ रहस्यों के साथ-साथ जीवन की क्षणभंगुरता में आत्मिक आनंद की प्रतीति को कला का मर्म बना देने वाले सैयद हैदर रजा का आज जन्मदिन है | सैयद हैदर रजा आज अपने जीवन के अठ्ठासी वर्ष पूरे कर रहे हैं | स्थाई रूप से पेरिस स्थित अपने घर में रह रहे सैयद हैदर रजा आजकल भारत आये हुए हैं और आज दिल्ली में हैं | सैयद हैदर रजा ने वर्ष 1922 में आज ही के दिन मध्य प्रदेश के मांडला क्षेत्र के बाबरिया गाँव में ताहिरा बेगम की कोख से जन्म लिया था | उनके पिता सईद मोहम्मद राजी उस समय डिप्टी फोरेस्ट रेंजर के पद पर थे | बारह वर्ष की उम्र तक वह गाँव में ही अपने माता-पिता के साथ रहे | तेरह वर्ष की उम्र में वह हाई स्कूल करने दमोह गये | हाई स्कूल करने के बाद वह नागपुर स्कूल ऑफ ऑर्ट गये, जहाँ वह 1939 से 1943 तक रहे | 1943 से 1947 तक उन्होंने मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ ऑर्ट में शिक्षा प्राप्त की | वर्ष 1946 में उन्होंने अपने चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी बोम्बे ऑर्ट सोसायटी की कला दीर्घा में की थी | वर्ष 1947 में उनके जीवन की दो प्रमुख घटनाएँ हुईं : पहले उन्होंने अपनी माँ के निधन का सामना किया और फिर फ्रांसिस न्यूटन सूजा के साथ मिलकर उन्होंने बोम्बे ऑर्टिस्ट ग्रुप का गठन किया | वर्ष 1950 में फ्रांस सरकार की एक फेलोशिप के तहत वह तीन वर्ष के लिये पेरिस चले गये, जहाँ उन्होंने कला के विश्व-संसार से परिचय प्राप्त किया | कला के विश्व-संसार से परिचय प्राप्त करने के क्रम में हालत कुछ ऐसे बने कि रजा स्थाई रूप से पेरिस में ही बस गये | फ्रांस सरकार से उन्हें कला का सर्वोच्च सम्मान मिला | रजा पहले गैर फ्रांसीसी कलाकार हैं जिन्हें उक्त सम्मान मिला | पेरिस में लंबे समय तक रहने और वैश्विक कला जगत में अपनी प्रखर पहचान बना लेने के बावजूद रजा का भारत से नाता नहीं टूटा | वह लगातार न सिर्फ भारत आते रहे बल्कि यहाँ के कला जगत के साथ गहरे से जुड़े भी रहे हैं |
प्रख्यात कलालोचक पॉल गोथिये ने उनका परिचय देते हुए वर्षों पहले लिखा था :
'रजा एक भारतीय कलाकार हैं, जो अब पेरिस में जा बसे हैं |' सैयद हैदर रजा के मन में फ्रांस सरकार की फेलोशिप मिलने से पहले ही फ्रांस के प्रति एक उत्सुकता पैदा हो गई थी | रजा ने बताया है कि उन दिनों - उन दिनों यानि बोम्बे ऑर्टिस्ट ग्रुप के गठन के दिनों में - एक किताब ने उनकी कल्पना को झिंझोड़ दिया था | इरविंग स्टोन की वह किताब थी - लस्ट फॉर लाइफ, जो दरअसल विन्सेंट वॉन गॉग की जीवनी है | रजा को यह तो पता ही था कि विन्सेंट वॉन गॉग एक ऊंचे दर्जे के कलाकार थे, जो फ्रांस में काम करते रहे और वहीं जिनका निधन हुआ था | उन्हीं दिनों - वर्ष 1949 में मुंबई में फ्रेंच कांसुलेट द्वारा आयोजित जीवित फ्रेंच चित्रकारों के काम की बड़ी अनुकृतियों की एक प्रदर्शनी हुई | रजा ने समझ लिया था कि कला के विस्तृत स्त्रोतों तक यदि पहुँच बनानी है तो उन्हें फ्रांस जाना ही होगा | पेरिस उन दिनों यूं भी समकालीन कला का एक स्पंदित केंद्र था |
सैयद हैदर रजा ने पेरिस में समकालीन कला की दुनिया से परिचय ही प्राप्त नहीं किया, पेंटिंग को पहचानने का नजरिया भी पाया | उन्होंने स्वीकार किया है कि 1951 - 52 से पहले दरअसल पेंटिंग की असलियत को वह समझते ही नहीं थे | प्रकृति के, रंगों के, लैंडस्केपों के कुछ प्रभाव थे जिन्हें वह एक चित्रनिर्मिति (कंस्ट्रक्शन) में बदल दिया करते थे | उन्होंने कहा है कि यह तो बाद में ही जाना कि आप्टिकल रियलिटी (आँख-यथार्थ) अपने-आप में काफी नहीं है या कि वह पूरा यथार्थ नहीं है | जो चीज चित्र को चित्र बनाती है, वह केवल ऊपर से दीख पड़ने वाली चीज नहीं है | जब चित्र अपनी साँस ले, तभी वह चित्र है | रजा ने 1948 से 1951 तक बहुत काम किया | अपनी पूरी याद के साथ उन्होंने बताया है कि 1949 में उन्होंने करीब तीन सौ चित्र बनाये थे | उन दिनों वह केरल, मद्रास, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, श्रीनगर की कई जगहों तथा कई शहरों में गये थे | वहाँ के जो ढेरों प्रभाव थे और मन में जो ढेरों दृश्य घूमते थे, रजा उन्हें अपने चित्रों में ले आते थे | रजा ने कहा है कि पेरिस पहुँच कर उन्होंने जो देखा / समझा तो पाया कि अभी तक वह जो कर रहे हैं यदि वही करते रहे तो वह तो खो जायेंगे | उन्होंने इस बात को समझा कि उन्हें आप्टिकल रियलिटी से छुटकारा पाना होगा और अपने अंदर की बात ढूंढनी होगी | तब उन्होंने चित्र के आंतरिक जीवन (इनर लाइफ) को तलाशने, चित्र की संगीतात्मक संरचना को समझने, रंगों के साथ एक नया संबंध बनाने का काम शुरू किया; और चाक्षुक यथार्थ (विजुअल रियलिटी) के मर्म को वास्तव में पहचानने का प्रयास किया | रजा ने बहुत साफ शब्दों में स्वीकार किया
है कि सचमुच पहली पेंटिंग उन्होंने पेरिस में 1952 में बनाई |
रजा की कल्पनाशीलता और अभिव्यक्ति को संपन्न करने में फ्रांस की आबोहवा का निस्संदेह बहुत योगदान रहा है; लेकिन भारतीय स्त्रोत उनमें बहुत गहरे और अखंड रूप में मौजूद रहे हैं | पॉल गोथिए ने लिखा है कि इन दोनों संसारों के* *बीच उन्होंने अपनी कला का एक ऐसा पुल बांध लिया है जो न तो आधुनिक कला की विशिष्टताओं को नजरअंदाज करता है, और न ही अपनी जड़ों से कतई कटा हुआ है - उनकी कला वस्तुगत स्तर पर समय-काल के परे है, और शैलीगत स्तर पर पूरी तौर से आधुनिक | सैयद हैदर रजा के बनाये चित्र एक जीवंत सार्वभौमिक कला के भौतिक प्रतिरूप हैं | सैयद हैदर रजा के अठ्ठासीवें जन्मदिन के मौके पर इस बात को रेखांकित करना अच्छा भी लग रहा है और रजा पर व अपने बीच उनकी उपस्थिति पर गर्व भी हो रहा है |
रजा साहब दमोह के गुरूगोविन्द स्कूल में पढ़े और जब भी दमोह आते हैं तो स्कूल जरूर जाते हैं। पिछले वर्ष जब दमोह आते, लाखों रूपये स्कूल के लिए दे जाते हैं । पर स्कूल बैसा ही पिछडा हुआ है। उनके नाम से एक हाल बनवा दिया हे। लेकिन सारा स्कूल बुरी स्थिति में है। आप उन तक यह समाचार जरूर भिजवायें ।
ReplyDelete