Sunday, December 6, 2009

शालू जैन को 'अंतरंग अकादमी सम्मान'

अंतरंग अकादमी ने चित्रकला के लिये वर्ष 2009 के 'अंतरंग अकादमी सम्मान' के लिये शालू जैन का चयन किया है | यह घोषणा करते हुए अकादमी की प्रबंध कार्यकारिणी के अध्यक्ष डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि सम्मान के लिये योग्य युवा प्रतिभा का चयन करने खातिर युवा सर्जनात्मकता का आकलन करने की प्रक्रिया में, नए प्रयोगों और सूक्ष्म दृष्टि से अपने काम में एक नयापन और विविधता लाने में शालू जैन की निरंतर सक्रियता और सक्षमता को रेखांकित करते हुए तीन सदस्यों की कमेटी ने एकमत से यह फैसला किया है | सम्मान के लिये योग्यता को लेकर उन्होंने कहा कि अकादमी की प्रबंध कार्यकारिणी के सदस्यों ने देखने और समझने की कोशिश की कि कौन से पत्थर तैरने वाले और पार पहुँचने वाले हैं | साथ ही यह भी सोचा गया कि यह सम्मान ऐसा न हो जो पहुंचे हुए लोगों की पहुँच की प्राप्ति स्वीकार करता हो | डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि कमेटी के सदस्यों को तथा उन्हें यह बात तो बाद में पता चली कि शालू जैन ने कला का संस्कार और परिष्कार बड़ौत नाम के उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में प्राप्त किया है | इस जानकारी को डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने शालू जैन के चयन के फैसले के संदर्भ में उल्लेखनीय माना | उनका कहना रहा कि शालू जैन की कला के
स्त्रोत बड़ौत जैसी छोटी जगह में हैं, यह एक कलाकार के रूप में उनके लिये महत्त्व की बात है या नहीं, यह तो वे जानें; अपने फैसले के संदर्भ में यह हमारे लिये अवश्य ही महत्त्व की है | डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि दिसंबर के अंतिम सप्ताह में लखनऊ में होने वाले अकादमी के वार्षिक कला उत्सव में शालू जैन का सम्मान किया जायेगा |
शालू जैन ने पिछले छह - सात वर्षों में विभिन्न जगहों पर अलग - अलग संस्थाओं द्वारा आयोजित समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | पिछले तीन वर्षों के दौरान दो बार - पहली बार नई दिल्ली के प्रेस क्लब में तथा दूसरी बार लोकायत मुल्कराज आनंद सेंटर में उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनियां भी की हैं | बीते दिनों की उनकी कला - सक्रियता को यहाँ याद करने की प्रासंगिकता इसलिए है क्योंकि उनकी यही सक्रियता स्वयं में इस बात का एक प्रमाण है कि चित्रकला से उनका गहरा लगाव है; और इस लगाव के चलते ही शालू जैन ने युवा चित्रकारों में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है | शालू जैन के चित्रों में चित्रता-गुण भरपूर हैं और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो देखते ही बनती है और जो अपने विश्लेषण के लिये हमें तरह तरह से उकसाती भी है | उनके चित्र बार-बार देखे गये से प्रतीत होते हैं; इसके बावजूद हम उन्हें दोबारा देखने के लिये प्रेरित होते हैं, और फिर पाते हैं कि जैसे उन्हें पहली बार देख रहे हों |
शालू जैन के चित्रों में प्रकृति के और प्रकृति-स्थितियों के कायांतरित आकार हैं, हमारी आँखों के सामने जैसे नाटकीय घटनाएँ घट रही होती हैं; रूपाकार ऊर्जावान गतियों से सजीव होने लगते हैं - कुछ इस तरह जैसे पहले ऐसे दृश्य कभी देखे न हों, हालाँकि हम उनसे अच्छी तरह परिचित होते हैं | यह शालू के काम की विलक्षण अभिव्यक्ति है, उनकी स्वप्नसृष्टि की अभिव्यक्ति | उनकी चेतना की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति जैसे लगते हैं उनकी पेंटिंग्स में के परिदृश्य | एक चित्र की रचनाप्रक्रिया के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया कि एक दिन वह अपने घर की छत पर थीं कि गरजते बादलों को उन्होंने कुछ इस तरह उमड़ते-घुमड़ते हुए देखा, कि तुरंत एक पेंटिंग पर काम करने के लिये वह प्रेरित हुईं | बादलों का उमड़ना-घुमड़ना उन्होंने हालाँकि पहले भी कई-कई बार देखा है, लेकिन उस दिन यदि उनमें उस परिदृश्य को पेंट करने की 'इच्छा' पैदा हुई, तो यह 'चेतना की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति' जैसा मामला ही है, जिसमें 'स्वप्नसृष्टि की अभिव्यक्ति' के तत्त्वों को भी देखा/पहचाना जा सकता है | उक्त घटना उन्होंने बताई तो पता चला; वह नहीं भी बतातीं, तो उनकी पेंटिंग्स तो यह 'बता' ही रही थीं | उनकी पेंटिंग्स में धरातल तथा पुंज (मास) का एक सादा-सा ज्यामितीय संतुलन बनता दिखता है, जो कलाकार के मन में पनपने वाली सुघट्य भावनाओं का परिचय देता है | अपनी पेंटिंग्स में के आकारों को शालू ने कहीं कहीं छायाकृति (सिलुएट) की तरह भी प्रस्तुत किया है |
शालू जैन पिछले काफी समय से प्रकृति के कई उपकरणों को लेकर ही काम कर रही हैं और इन उपकरणों की एक 'समानता' के बावजूद हर बार उनके काम में हमें एक और गहराई दीख पड़ती है | एक्रिलिक रंगों से बने उनके चित्र प्रकृति के दृश्यजगत का ही मानों एक निचोड़ हैं | उनके चित्रों में जैसे उनका दृश्यमान ही परिवर्तित हो गया है - प्रकृति उपकरण किसी कोण विशेष से ही न देखे जाकर, एक आत्मसात आंतरिक और बाह्य स्पेस (और रंगों) के रूप में देखे गए हैं | उनके चित्र-देश ने उन तमाम हलचलों, गतियों, संकेतों और मर्मों को अपने में बुन और समाहित कर लिया है जो ऋतुएं और मानस, एक अंतर्संबंध में घटित करते हैं; और जिनमें स्मृतियाँ रहती हैं, रंग-अनुभव रहते हैं, प्रकाश और छायाएं रहती हैं, शारीरिक-ऐंद्रिक उद्वेग रहते हैं, और जो कुल मिलाकर एक आत्मिक अनुभव में बदल जाते हैं | इस तरह प्रकृति उपकरण शालू जैन की कला में अभिन्न रूप से जुड़ गए हैं | इस तरह की 'अभिन्नता' किसी कलाकार में एक दुहराव में भी बदल सकती थी; लेकिन शालू जैन के यहाँ वह दुहराव में न बदल कर हर बार एक नए विस्मय में बदल जाती है | हम हर बार अनुभव करते हैं कि हम ने जो पहले देखा था, वह इससे मिलता जुलता तो था, लेकिन ठीक ऐसा ही नहीं था | लेकिन ठीक वैसा न लगने में 'ही' उन की कला की सार्थकता नहीं है - वह तो इसी बात में है कि वह हर बार अपने को सार्थक करती  है |
'अंतरंग अकादमी सम्मान' के लिये शालू जैन का चुना जाना वास्तव में उनकी कला की इसी सार्थकता का सम्मान है |

नई दिल्ली के लोकायत मुल्कराज आनंद सेंटर में 'इन द लेप ऑफ नेचर' शीर्षक से कुछ समय पहले आयोजित हुई शालू जैन की एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित कुछ चित्र आप यहाँ देख सकते हैं :










































 










Sunday, November 22, 2009

पिकासो की वर्षों पहले कही गई बात कि 'चित्र अपनी अनुश्रुति पर ही जीवित रहेगा, किसी और चीज पर नहीं' को मैंने अपने सामने सच होते हुए पाया


अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौट रहे लोगों से खचाखच भरे ट्रेन के डिब्बे में अपने दोस्तों को जब मैंने बातों ही बातों में यूं ही बताया कि आज मैंने पिकासो के चित्रों की प्रदर्शनी देखने का काम किया है, तो मैंने महसूस किया की मेरे दोस्तों ने मुझे कुछ खास तवज्जो देना शुरू कर दिया | अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौटने की जल्दी में ट्रेन में साथ बैठे उन दोस्तों को मैं चूंकि अच्छी तरह जानता हूँ; मैं जानता हूँ कि कला उनके लिये एक फालतू किस्म का काम है; मैं जानता हूँ कि उन्हें पिकासो तो क्या किसी भी कलाकार के बारे में या उनके काम के बारे में जानने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही होगी; मैं जानता हूँ कि कला में मेरी दिलचस्पी उनके लिये अक्सर मजाक का विषय रही है - लेकिन अब नज़ारा बदला हुआ था | मैंने पिकासो की पेंटिंग्स देखी हैं, मैं पिकासो के बारे में कुछ जानता हूँ, मुझे पहले से पता था कि पिकासो की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी दिल्ली में कहाँ लगी है और मैं आज आज खास तौर से उस प्रदर्शनी को देखने गया - इस कारण मैं ट्रेन के सफ़र के अपने उन दोस्तों के बीच खास बन गया था जिनके मन में मैंने कला के प्रति कभी कोई सम्मान या दिलचस्पी नहीं देखी थी |
अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौट रहे ट्रेन के मेरे उन दोस्तों को पिकासो के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि पिकासो एक बड़ा चित्रकार था, किसी ने कहा कि - है | पिकासो के बारे में इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था | अपनी जानकारी में उन्होंने पिकासो की कोई पेंटिंग नहीं देखी | कभी किसी अख़बार या पत्रिका में देखी हो तो उन्हें पता नहीं, याद नहीं | पिकासो की पेंटिंग्स देखने को लेकर उन्होंने कोई इच्छा या उत्सुकता भी नहीं प्रकट की | मैंने उन्हें बताया भी कि जिस प्रदर्शनी को मैं देख कर आ रहा हूँ, वह अभी पंद्रह दिन और लगी रहेगी; लेकिन किसी ने भी ऐसी इच्छा भी प्रकट नहीं की कि वह देखने जाने की कोशिश करेगा | इसके बावजूद, मैंने महसूस किया कि जैसे उन्हें इस बात पर गर्व था कि उनके साथ बैठे उनके एक दोस्त ने पिकासो की पेंटिंग्स देखी हैं और जो पिकासो के बारे में जानता है | उनका इस बात पर गर्व करना और मुझे खास तवज्जो देना मुझे हैरान कर रहा था | अपने दोस्तों का यह व्यवहार और उनका रवैया मुझे बराबर पहेली जैसा लग रहा था और मैं वास्तव में चकित था |
मैं चकित था यह देख कर कि स्पेन के एक छोटे से गाँव मालागा में 1881 में जन्में पाब्लो पिकासो में ऐसा आखिर क्या था कि हजारों मील दूर भारत के एक छोटे शहर के, अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौट रहे लोग उनके नाम के आगे इस हद तक नतमस्तक थे कि मुझे खास समझ रहे थे क्योंकि मैं पिकासो के बारे में उनसे ज्यादा जानता हूँ | यह ठीक है कि हमारे समय के कलाकारों में पिकासो की एक विशिष्ट जगह है - एक ऐसी जगह जिसे उन्हें सख्त नापसंद करने वाला भी नहीं छीन सकता है | यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमारे समय में कोई दूसरा पिकासो नहीं पैदा हो सकता | पिकासो जैसे जीवन और उसके मिथक और जादुई ताकत को पाना आसान नहीं है - बल्कि असंभव ही है | पिकासो ने हमेशा मनुष्य और उसके जीवन को अपने चित्रों में उकेरने का काम किया है | मातृत्व, नट, मदारी, गरीब, फुटपाथवासी, अंधे भिखारी आदि उनकी कला के विषय रहे | दुःख और वेदना को दृश्य-भाषा के माध्यम से कैसे उकेरा जा सकता है पिकासो से ज्यादा शायद ही कोई जानता होगा | मनुष्य जीवन की छोटी से छोटी सच्चाई को पहचानने; मनुष्य जीवन की गहरी समझ रखने तथा उसके प्रति अतुलनीय जुड़ाव व आस्था रखने और उसे प्रकट करने उस ही पिकासो को पिकासो बनाया है, और उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी | लेकिन इस बात से उन लोगों को भला क्या मतलब जो अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौटने की जल्दी में हैं और जो कला को एक फालतू का काम मानते और समझते हैं |
मैं वास्तव में हैरान था और मेरे लिये यह एक पहेली सी बन गई थी कि आखिर क्या चीज है जो उन्हें पिकासो के नाम के आगे नतमस्तक किये दे रही है | इस पहेली को हल करने में पिकासो ने ही मेरी मदद की |  मैंने कहीं पढ़ा है कि पिकासो ने एक बार कहा था : 'जितना रंग टिकता है उतना ही कागज भी, और अंततः दोनों साथ-साथ आयुग्रस्त होते हैं | और बाद में कोई चित्र तो देख नहीं पायेगा, सब चित्र की अनुश्रुति या दंतकथा ही सुनेंगे - वह अनुश्रुति या दंतकथा जो चित्र ने बनाई होगी | तब फिर, चित्र रहे या न रहे कोई फर्क नहीं पड़ता | आगे चलकर चित्र को 'रक्षित' करने की कोशिश की जायेगी; लेकिन चित्र अपनी अनुश्रुति पर ही जीवित रहेगा, किसी और चीज पर नहीं |' पिकासो संभवतः यही कह रहे थे कि अगर किन्हीं कलाकृतियों में प्राण फूंके गए होंगे तो वे कलाकृतियां समाप्त हो जाने पर भी हमारी स्मृति में मंडराती रहेंगी | अचंभा नहीं कि, पिकासो अपनी ही कृतियों को मान दे कर एक अनुश्रुति ( लीजेंड ) बना रहे थे | पिकासो ने एक बार यह भी कहा था : 'जरूरी बात यह है कि हमारे समय के कमजोर मनोबल के बीच उत्साह पैदा किया जाये | कितने लोगों ने सचमुच होमर को पढ़ा होगा ? लेकिन समूची दुनिया होमर की बात करती है | इस तरह से एक होमेरी अनुश्रुति बनती है | इस अर्थ में एक अनुश्रुति मूल्यवान उत्तेजना पैदा करती है | उत्साह ही वह चीज है जिसकी हमें और युवा पीढ़ी को, सबसे अधिक ज़रूरत है |
कितना सही थे पिकासो | कोई उनके चित्रों को कभी देख पाए या नहीं, कोई उन्हें या उनके चित्रों को जानें या नहीं, लेकिन उनके और उनकी कला के प्रति सम्मान और उत्साह व्यक्त करने के मामले में पीछे नहीं रहेगा | अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौटने की जल्दी में ट्रेन में बैठे अपने दोस्तों को पिकासो के नाम के आगे नतमस्तक देख कर मुझे पिकासो की कही हुई बात का जैसे जीता-जागता सुबूत मिल रहा था |

Wednesday, November 11, 2009

अक्षय आमेरिया का रचना-संसार एक नैतिक अन्वेषण है

अक्षय आमेरिया की कुछेक कलाकृतियों को महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'बहुवचन' के पृष्टों पर छपा देखा तो मुझे वर्षों पहले नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में आयोजित हुई उनके चित्रों की एकल प्रदर्शनी की याद हो आई | अब जब मैंने खोज खबर ली तो पाया कि यह वर्ष 2000 की बात थी | अक्षय के चित्रों में प्रकट होने वाले काव्यात्मक बोध के कारण उनके चित्रों की जो छाप मेरे मन पर पड़ी थी, मैंने पाया कि वह जस की तस बनी हुई है | मुझे भी इसका पता हालाँकि तब चला जब मैं 'बहुवचन' के पृष्टों को पीछे की तरफ से पलट रहा था और उसमें छपे चित्रों को देखते ही मैंने जैसे अपने आप से कहा कि यह तो अक्षय आमेरिया के चित्र हैं, और फिर मैंने अपने आप से कही गई बात को सच पाया |

अक्षय आमेरिया के काम को तो मैंने देखा ही है, उन्हें काम करते हुए देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है | आइफैक्स द्वारा आयोजित एक कैम्प में भाग लेने अक्षय दिल्ली आये थे, तब कुछ समय उनके साथ बिताने का अवसर मुझे मिला था | अक्षय बात भी करते जा रहे थे और कागज पर रचने का काम भी करते जा रहे थे | बात को और काम को एकसाथ साधने की उनकी क्षमता ने उस समय भी मुझे चकित किया था, और आज भी उस दृश्य को याद करता हूँ तो चकित होता हूँ | 'बहुवचन' में अक्षय की कलाकृतियों के जो चित्र छपे हैं वह पिछले दिनों मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी में 'इनरस्केप्स' शीर्षक से प्रदर्शित हुए हैं |

 अक्षय आमेरिया ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपने चित्रों के सामने पहली बार खड़े हो रहे दर्शकों को विस्मित और अपने चित्रों से पहले से परिचित दर्शकों को लगातार आश्वस्त बनाए रखा है, अपने 'विषयों' को लेकर भी और तकनीक को लेकर भी | अपने कौशल के साथ अक्षय हमें एक ऐसे स्पेस में ले जाते हैं, जहाँ प्रत्येक रेखा और बिंदु आविष्ट है, अपनी स्वयं की ज़िन्दगी प्राप्त कर रहा है - लगातार परिवर्तित होता हुआ | वैयक्तिक रूप से प्रत्येक चित्र एक स्वायत्त और स्वतंत्र कलाकृति के रूप में डटा रहता  है | यूं ही देखें तो अक्षय की कृतियाँ रूप और बुनावट में समृद्व दिखती हैं, और अगर ध्यान से निरीक्षण करें, तो वह एक ऐसी दुनिया निर्मित करती दिखती हैं जो दृश्य संदर्भों के विविध तत्त्वों को समाहित किए हुए हैं; तथापि कृति की सहजता और गतिकता के कारण, इस समूची प्रक्रिया में कुछ भी नाटकीय ढंग से आयोजित नहीं प्रतीत होता | अक्षय के चित्रों में एक भव्य संरचना और एक प्रतिध्वनित लय प्राप्त होती है जो एक निश्चित और दृढ़ तत्त्व लिए हुए होती है और वह अंतर्विरोध तथा आनंदप्रद तनाव का भाव पैदा करती है | इस अर्थ में अक्षय आमेरिया का रचना-संसार एक नैतिक अन्वेषण है - किन्हीं स्थूल अर्थों में नहीं बल्कि आध्यात्मिक और संवेदनात्मक अर्थों में - क्योंकि अन्ततः 'इनरस्केप' का बोध ही समस्त प्रकार की नैतिकता का बुनियादी स्त्रोत है | अखंडित, निर्वैयक्तिक और पारदर्शी चेतना के लिए कलाकार के संघर्ष को अक्षय के चित्रों में देखा / पहचाना जा सकता है |

अक्षय आमेरिया के कुछेक चित्रों को आप भी यहाँ देख सकते हैं | 


















Friday, October 30, 2009

नंद कत्याल ने अपने नए चित्रों में जैसे अपनी स्मृतियों को जाँचा परखा है

नंद कत्याल ने आर्ट हैरिटेज कला दीर्घा में 'फ़ोर्म्स दैट लास्ट थ्रू टाइम' शीर्षक से प्रदर्शित अपने नए चित्रों में गुजरे समय की स्मृतियों को जिस तरह उकेरा है, उन्हें देखते हुए 'उत्तर - उत्तर आधुनिकता' पर व्यक्त किये गए उनके विचार मुझे सहज ही याद आये, जिनमें उन्होंने कहा था कि आधुनिक कलाकार हमेशा और आगे जाने की कोशिश करता रहता है | वह तभी तक आधुनिक रह पाता है जब तक हर नए काम में नया जन्म ले | शास्त्रीयता में बंधा कलाकार विचारधाराओं और सांस्कृतिक इतिहास की मान्यताओं के स्वीकार में रहता हैं | उसे अपने माध्यम और उसे बरतने की प्रक्रिया की परंपरा के भीतर रहकर ही लयात्मक का स्वरूप खोजना पड़ता है | नंद कत्याल का कहना था कि रचनात्मक कलाकार पुरानी कृतियों को याद करता है और अपनी यादों को जाँचता परखता है | स्थापित विचारधाराओं, उनके प्रस्तुतीकरण और शैलियों की मान्यता पर वह सवालिया निशान लगाता है | सांस्कृतिक इतिहास के दबाव में पैदा हुई ग्रंथियों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठने की पुरजोर कोशिश करना उसकी प्रकृति है |
नंद कत्याल का कहना था कि जो कुछ अव्यक्त है और अभिव्यक्ति से परे है, उसे लगातार प्रेरित करता रहता है ताकि नए की रचना हो सके | यह नया ही प्रेम और स्नेह का विकास है; हालाँकि कलाकार को अपने प्रेम की रूपंकरता और स्वरूप के बारे में खुद पूरी जानकारी नहीं होती - और वह अपने कैनवस पर इसी की खोज में डूबा रह जाता है | यही वह मुकाम है जहाँ कुछ घटने लगता है, घटनाचक्र का अपना तर्क रूप लेने लगता है | किसी मान्यता प्राप्त विचारधारा की बंदिशों से आजाद होकर ही ऐसा होता है और अनुभूत तब साकार होने लगता है | कभी - कभी कुछ घट जाता है जहाँ अपार संतोष एवं आनंद आकार ले लेता है |
नंद कत्याल का मानना और कहना था कि अनुभूतियों के साकार होने की कोई सीमायें नहीं होतीं | परिचित, अपरिचित या काल्पनिक के दिगम्बरी अनुभव पर कलाकार का कोई बस नहीं है और सब कुछ उसी के जरिये कैनवस पर घटित होता जाता है - शायद यही आधुनिक है | उत्तर आधुनिकता हमेशा आधुनिकता में ही मौजूद रहती है | रचनात्मकता की जद्दोजहद में डूबा हुआ कलाकार अपने निजी स्वभाव को खोजता रहता है और निजत्व की पहचान करते ही मूक हो जाता है | अव्यक्त किसी कदर व्यक्त हो जाता है | नंद कत्याल का निष्कर्ष था कि इस कशमकश में आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के सन्दर्भ बिल्कुल ही बेमानी हैं |
नंद कत्याल के इन विचारों को याद करते हुए आर्ट हैरिटेज कला दीर्घा में प्रदर्शित उनके नए चित्रों को देखना मेरे लिए एक खासा दिलचस्प अनुभव रहा |



Saturday, October 24, 2009

सैफ़रन आर्ट की वेबसाईट में शामिल होने वाले सबसे कम उम्र के चित्रकार अर्पित बिलोरिया के चित्रों की सहजता में गहरे भाव - बोध का आभास होता है

अहमदाबाद के अर्पित बिलोरिया के काम को व्यापक जाँच परख से गुजरने के बाद अंततः सैफ़रन आर्ट की सूची में शामिल होने की स्वीकृति मिल गई है | सैफ़रन आर्ट की वेबसाईट पर आने के कारण अर्पित बिलोरिया का काम अब अंतर्राष्ट्रीय कला प्रेक्षकों तथा कला प्रेमियों के लिए भी देख पाना संभव हो सकेगा | भारतीय कला में दिलचस्पी रखने वाले अंतर्राष्ट्रीय कला प्रेक्षकों व कला प्रेमियों के बीच सैफ़रन आर्ट की अच्छी पहचान व प्रतिष्ठा है | सैफ़रन आर्ट ने पिछले करीब एक दशक की अपनी सक्रियता में भारतीय कलाकारों के काम को अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में परिचित कराने, उन्हें प्रतिष्ठा दिलाने तथा उन्हें बिकवाने का उल्लेखनीय योगदान दिया है | दरअसल, इसी योगदान के कारण सैफ़रन आर्ट को भारतीय पहचान की एक ग्लोबल आर्ट कंपनी के रूप में देखा/पहचाना जाता है | यही वजह है कि सैफ़रन आर्ट की कलाकारों की सूची में शामिल होने का हर भारतीय कलाकार सपना देखता / रखता है | इसी सपने को देखते/रखते हुए अर्पित बिलोरिया ने करीब एक वर्ष पहले सैफ़रन आर्ट की कलाकारों की सूची में शामिल होने के लिए आवेदन किया था | सैफ़रन आर्ट की फैसला करने वाली टीम के लोगों ने पिछले एक वर्ष में तीन-चार बार अर्पित से बात की और न सिर्फ उनके नए पुराने काम को सिलसिलेवार तरीके से देखा - परखा, बल्कि उनसे बात करके कला को लेकर तथा काम करने के उनके तरीके को लेकर उनके विचारों को भी जाना - समझा; और व्यापक जाँच - परख के बाद एक  कलाकार के रूप में उन्हें कलाकारों की अपनी सूची में शामिल करने के योग्य पाया |

सैफ़रन आर्ट ने हाल - फ़िलहाल के वर्षों में जिन कलाकारों को चुना है, उनमें अर्पित बिलोरिया अहमदाबाद के अकेले कलाकार हैं | इस आधार पर कहा जा सकता है कि अर्पित बिलोरिया के जरिये अहमदाबाद ने बहुत समय बाद सैफ़रन आर्ट में जगह प्राप्त की है | सैफ़रन आर्ट में कलाकारों की सूची को देखने पर हम यह भी पाते हैं कि वहाँ अर्पित बिलोरिया सबसे कम उम्र के चित्रकार हैं | यह तथ्य युवा चित्रकारों में अर्पित बिलोरिया की एक अलग पहचान का सुबूत भी देता है और उसे रेखांकित भी करता है | 1980 में जन्में अर्पित ने अहमदाबाद के सी एन कॉलिज ऑफ फाइन आर्ट्स से कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की है | अर्पित एक अत्यंत सक्रिय और प्रयोगशील कलाकार हैं | उनकी सक्रियता और प्रयोगशीलता का ही सुबूत है कि पिछले तीन - चार वर्षों में उन्होंने अहमदाबाद और बड़ौदा के साथ - साथ दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद, पटना, जयपुर, वाराणसी, उदयपुर, भोपाल, कालीकट जैसे देश के प्रमुख कला केन्द्रों में अपने काम को प्रदर्शित तो किया ही है; अपनी सक्रियता को विविधता भी दी है | अर्पित ने अपनी कला यात्रा स्कल्पटर के रूप में शुरू की थी, लेकिन फिर जल्दी ही वह पेंटर हो गए | उन्होंने इंस्टालेशन भी किया | इसी वर्ष मई - जून में थाने कला भवन में उन्होंने शाम पहपालकर व देविबा वाला के साथ मिलकर थर्मोकोल, नायलोन स्ट्रिंग्स तथा प्रोजेक्टर्स जैसी चीजों से जो एक इंस्टालेशन तैयार किया था, उसकी कला जगत में खासी धूम रही थी | देविबा वाला के साथ उन्होंने अहमदाबाद में वर्वे नाम के एक कला - ग्रुप की स्थापना की है|
अर्पित ने अपने चित्रों में काले रंग का प्रयोग तमस तत्त्व के रूप में किया है | अपने केनवस उन्होंने बिल्कुल सफ़ेद और खाली छोड़े हैं, लगता है कि जैसे उन्होंने भावनाओं व विचारों की आवाजाही के लिए जगह बनाई है और काले रंग के विभिन्न शेड्स के बहुत थोड़े से / सीमित से उपयोग से उन भावनाओं व विचारों को प्रेरित करने का जैसे 'मौका' दिया है | काले रंग के प्रयोग को इसीलिए हमनें तमस तत्त्व के रूप में देखा / पहचाना है| यही तत्त्व उनके चित्रों को एक दार्शनिक भावभूमि देता है | अर्पित के चित्रों में व्यक्त होने वाली दार्शनिकता विचार - बहुल न होकर अनुभूति - जन्य तथा संवेदनात्मक है; और उनके चित्रों की अनुभूति व संवेदना इतनी गहरी है कि उसे सहजता से समझ पाना कठिन भी होता है | उनके चित्रों में व्यक्त होने वाली अनुभूति व संवेदना 'जो है' और 'जो नहीं है' के बीच आवाजाही - सी करती दिखती है | उनके चित्रों में हालाँकि सहजता दिखाई पड़ती है लेकिन उस सहजता में गहरे भाव - बोध का आभास होता है | सहज और सामान्य से 'दिखने' वाले अर्पित के चित्रों में सूक्ष्मतम संवेदनाओं की वृहद अभिव्यंजना दिखाई पड़ती है |
अर्पित बिलोरिया के कुछेक चित्रों को आप यहाँ भी देख सकते हैं :












































Monday, October 19, 2009

प्रेमेन्द्र सिंह गौड़ ने अपने चित्रों में वस्तुओं को अपने अंतर्मन की किन्हीं सजीव भाव-सत्ताओं की छायाओं की तरह पकड़ा है

इंदौर के प्रेमेन्द्र सिंह गौड़ के अभी हाल में नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में प्रदर्शित चित्रों को देखकर जो पहला अनुभव होता है वह यह कि आकृतिमूलक चित्रकार न होते हुए भी प्रेमेन्द्र अमूर्तन के चित्रकार नहीं हैं | यह अनुभव प्रेमेन्द्र की चित्र-रचना की मूल बनावट और उसके स्वभाव को समझने में एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत भी साबित हो सकती है | प्रेमेन्द्र अभी अमूर्तन की उस सीढ़ी पर हैं जहाँ वह उन्हें एक नए अनुभव-संसार में प्रवेश करने और उस अनुभव-संसार को रचना-संसार में रूपांतरित करने को प्रेरित करती है | ऐसा लगता है कि जैसे प्रेमेन्द्र कुछ 'ठोस' कहना चाहते हैं | हालाँकि उनके चित्र 'उस कुछ' के कहने की बनिस्बत 'उस कुछ' की खोज के दस्तावेज ज्यादा मालूम पड़ते हैं | उनके चित्रों के पीछे कार्यरत एक बेहद उग्र बेचैनी का आभास मिलता है; उनके गहरे रंग अपने भीतर कोई हुई शांत आग छिपाये लगते हैं; उनकी रेखाकृतियाँ बार-बार जैसे एक ही विलम्बित लय के तीव्र खंडों को लपेटकर रखती हुई प्रतीत होती हैं | लेकिन इस आग और उग्र बेचैनी के बावजूद कहीं कोई एक सीमा-रेखा है जो प्रेमेन्द्र को उनकी अनुभूति में निहित अराजकता के संसार से बचाये रखती है | उनके चित्रों की सफाई; रंग-स्पर्श से झलकने वाली कोमलता, आत्मीयता और अंतरंगता; आकृतियों का सहज लयात्मक संतुलन उनकी कला के गंभीर आत्म-संयम का ही संकेत देते हैं |
मध्य प्रदेश के शाजापुर में 1978 में जन्में प्रेमेन्द्र ने इंदौर के इंस्टिट्यूट ऑफ फाइन आर्ट से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | पिछले एक दशक से वह इंदौर, उज्जैन, जबलपुर के साथ-साथ दिल्ली व मुंबई में समूह प्रदर्शनियों में भाग लेते रहे हैं | दिल्ली व मुंबई में उन्होंने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियां भी की हैं | दिल्ली व मुंबई में प्रदर्शित हुए उनके चित्रों को दूसरे देशों के कला प्रशंसकों व प्रेक्षकों ने भी देखा तथा सराहा | इसी सराहना के चलते प्रेमेन्द्र के चित्र जापान, अमेरिका व जर्मनी के निजी संग्रहालयों तक पहुचें हैं | त्रिवेणी कला दीर्घा में हाल ही में हुई उनके चित्रों की प्रदर्शनी, नई दिल्ली में उनकी दूसरी तथा कुल मिलकर तीसरी एकल प्रदर्शनी थी |
प्रेमेन्द्र अपने चित्रों में 'बाहर' की ओर नहीं, बल्कि 'भीतर' की ओर देखते हैं | उनके चित्रों में दीख पड़ने वाले रंग-रूपाकारों का सरोकार किसी बाह्य दृश्य-सत्ता से उतना नहीं जितना उनके अंतर्मन में जन्म ले रहे रूपाकारों से प्रेरित जान पड़ता है | अपने चित्रों में उन्होंने वस्तुओं को वस्तुओं की तरह नहीं पकड़ा है, बल्कि अपने अंतर्मन की किन्हीं सजीव भाव-सत्ताओं की छायाओं की तरह पकड़ा है | इस प्रयास में प्रेमेन्द्र किसी मानवीय या सामाजिक सच्चाई को यथार्थ की शक्ल नहीं देते, बल्कि उस मानवीय या सामाजिक सच्चाई को अन्वेषित करने में अपनी उत्कट लालसा का गति-चित्र पेश करते हैं | इसी से उनके चित्रों में एक प्रकार का गत्वर प्रवाह मिलता है | उनके रंग स्थिर कैनवस पर चिपके हुए नहीं लगते, बल्कि इधर-उधर बेचैन या खुश-खुश डोलते से नज़र आते हैं; उनकी रंग-रेखाओं व रंग-रूपाकारों का कैनवस के 'स्पेस' पर विभाजन एक संतुलन की सृष्टि भर नहीं करता, बल्कि एक संतुलित फ्रेम में किसी गतिशील अनुभव केंद्र की ओर खिसकता- बढ़ता लगता है |
प्रेमेन्द्र ने अपने चित्रों की प्रदर्शिनी को 'प्रकृति की छाया' शीर्षक दिया है | इससे भी समझा जा सकता है कि प्रेमेन्द्र के कलाकार का मूल और उनकी विशिष्टता यही है कि वे पहले तो जीवन व समाज के भौतिक और स्थूल पक्ष को चुनते हैं, और फिर उसे अमूर्त रूपाकारों में पाना चाहते हैं | प्रेमेन्द्र की रचनात्मक ऊर्जा उनके कला-व्यक्तित्व के इस संघर्ष से ही उत्पन्न होती है | उनके चित्रों में पाई जाने वाली गतिशीलता का यही राज है जो अक्सर उनके चित्रों को एक पारदर्शिता प्रदान करती है : कैनवस पर रंग की सतहें गहरी हो उठती हैं और गहराई सतह पर चमकने लगती है | उनमें स्थिरता और प्रवाह एक साथ है | इस मूल द्वंद्व की चेतना जहाँ उनके चित्रों में तेजी से उभरती है वहाँ वे अत्यंत सजीव लगते हैं; जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ द्वंद्व से थकित चेतना का अवसाद एक भावुकता में बदल जाता है और प्रेमेन्द्र अनायास 'लिरिकल' हो उठते हैं | प्रेमेन्द्र का यह द्वंद्व अभी उतार पर नहीं है, और शायद इसी कारण उनके साथ इस बात का खतरा फ़िलहाल नहीं दिखता है कि वे अपने आपको दुहराने लगेंगे |
प्रेमेन्द्र के कुछेक चित्र आप यहाँ भी देख सकते हैं :






















 

 

 

Wednesday, October 14, 2009

जल सोचता है, अनुभव करता है और अभिव्यक्त भी करता है

गोवा-मुंबई की हाल की यात्रा में समुद्रों में जल का जो इंद्रधनुषी रूप देखने को मिला, उससे एकबार फिर यह समझ में आया कि जल को क्यों ऋषियों ने 'आपो ज्योति रसोsमृतम्' यानि ज्योति, रस और अमृत कहा था; और जल क्यों स्वभाव की निर्मलता और पारदर्शिता के उपमान के साथ-साथ स्वच्छंदता और विद्रोह के प्रतीक के रूप में भी देखा/पहचाना गया है; और क्यों जल के पवित्र रूप - उसमें निहित आध्यात्मिकता, प्रेम, सौन्दर्य, क्रीड़ा और सहजता को दुनिया की विभिन्न कलाओं में सृजनात्मक अभिव्यक्ति मिली है | जापान के शोधकर्ता डॉक्टर मसारू ईमोटो की खोज के बारे में पिछले दिनों जब पढ़ा था कि जल में प्राण, मन व मस्तिष्क है; वह सोचता है, संवेगित होता है और अभिव्यक्त भी करता है तो सहसा विश्वास नहीं हुआ था | गोवा-मुंबई में लेकिन डॉक्टर मसारू ईमोटो की बात समझ में भी आई और सच भी लगी | समुद्र इससे पहले हालांकि कन्याकुमारी और चेन्नई में भी देखे हैं, और 'जल ही जीवन है' से पहले भी सहमत रहा हूँ - लेकिन गोवा-मुंबई में जल और जीवन के रिश्ते की व्यापकता को पहली बार समझा   है |   
वैदिक वांग्मय में, उपनिषदों में और भारतीय दर्शन की शाखाओं में जल को सृष्टि के एक महत्वपूर्ण पदार्थ के रूप में सर्वत्र वर्णित और परिभाषित किया गया है | वैदिक वांग्मय में सृष्टि विज्ञान  का विवेचन करते हुए जल को सृष्टि के उदगम अर्थात विसृष्टि की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण उपादान के रूप में बताया गया है जबकि सृष्टि के बाद पंचभूतों में से एक भूत के रूप में उसका जो स्थान है उसका विवेचन सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि सभी दर्शनों में विस्तार से हुआ है | जहाँ गोपथ ब्राह्मण ने उसका सृष्टि के उपादान के रूप में वर्णन करते हुए उसे भृगु और अंगिरा के संघात के रूप में आदिम तत्त्व की तरह विवेचित किया है, वहीं दर्शनों ने उसे केवल द्रव्य या पदार्थ माना है |
सांख्य आदि दर्शनों ने सृष्टि के उदगम की जो प्रक्रिया बताई है, उसके अनुसार अव्याकृत कारण ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई फिर महत्त्व, फिर अहंकार, फिर पंचतन्मात्रा और फिर पंचभूत व इन्द्रिय | पंचभूतों में जो जल है वह द्रव्य है | जबकि आदिसृष्टि के रूप में जिस जल का उल्लेख किया गया है वह सूक्ष्म तत्त्व है जिसमें सुनहरा अंडा या कॉस्मिक ऐग पैदा होता है | उस अंडे को हिरण्यगर्भ भी कहा गया है | चूंकि सारी सृष्टि उस अंडे से पैदा हुई है अतः उसी में पंचभूतों की उत्पत्ति भी आ जाती है | इससे पूर्व जो प्रथम अप् तत्त्व था, जिसमें ब्रह्मा ने बीज बोया वह सूक्ष्म तत्त्व के रूप में पहली सृष्टि कहा ही जा सकता है | यही रहस्य है जल को अवेग सृष्टि कहने का तथा समस्त जगत के जलमय होने का |
तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि ने जब जल को ही अन्न कहा, तो निश्चित रूप से उसके मन में केवल तत्त्व-चिंतन ही था | जल को एक व्यापक भूमिका देकर वह कहता है - आपो वा अन्नम्  |  ज्योतिरन्नादम्  |  अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्  |  ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिता |     ( यानि जल ही अन्न है, ज्योति आनंद है | जल में ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योति में     जल | ) गीता में यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न का उल्लेख है | इस प्रकार जल ही वह तत्त्व है जो धुलोक से पाताल तक व्याप्त है और अन्य तत्त्वों के शोषक रूप को प्रशमित करता है |
स्पष्ट है कि जल सिर्फ पानी नहीं है | वह रस है | सृष्टि में जो भी सौन्दर्य है, कान्ति है, दीप्ति है - वह इसी रसमयता के कारण है | स्थूल जल से शरीर का पोषण होता है और रस से आत्मा का | मनुष्य की कान्ति, पुष्प के पराग, वृक्ष की छाल में रस ही विधमान है | इस रस का सूखना मृत्यु की ओर बढ़ना है | इसीलिए शास्त्रों में रसमयता पर बल दिया गया है | जो रसमय होगा, वही जलमय होगा | भारतीय मनीषियों ने इसीलिए कहा है कि किसी को जल से वंचित नहीं करना चाहिए -
                         तृषितोमोहमायाती मोहात्प्राणं विमुच्यती |
                         अतः सर्वास्ववस्थासु न व्कचिद्वारिवारयेत् ||
जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है | मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है | सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य है | जब रहीम 'बिन पानी सब सून' कहते हैं तो उनका आशय किसी के तिरस्कार व अपमान के निषेध से भी है | पानी न देना और किसी का पानी उतर लेना - दोनों ही मानवता के विरूद्व है क्योंकि सब की सत्ता जल में है | ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है | सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं | इसीलिए कहा गया है -  सर्वमापोमयं जगत् |

शायद यही कारण हो कि जल के अनंत रूपों ने मानव मन को अजाने काल से ही मोहित किया हुआ है | कलाकार तो जल के विविधतापूर्ण रूपों के साथ कुछ ज्यादा ही संलिप्त रहे हैं | अजंता की गुफाओं के भित्ति-चित्रों के चितेरे हों या जैन, मुग़ल, राजपूत और पहाड़ी शैली के चित्रकार हों और या समकालीन कला के प्रयोगधर्मी कलाकार हों - सभी ने जल के अलग-अलग रूपों को अपनी-अपनी तूलिकाओं से सृजित किया है, क्योंकि वही तो सृष्टि का एकमात्र 'आदि-तत्त्व' है | गोवा में समुद्र के किनारे घूमते और उन किनारों पर बसी 'दुनिया' को देखते/समझते हुए इस सच्चाई से एकबार फिर सामना हुआ | गोवा-मुंबई में विश्वास हुआ कि जल जैसे सोचता भी है, अनुभव भी करता है और अभिव्यक्त भी करता है | जल के सोचने, अनुभव व अभिव्यक्त करने की कुछ बानगियां मैंने अपने कैमरे में भी कैद की हैं, जिनमें से कुछ यहां आप भी देख सकते हैं |