अमी चरणसिंह तीन सीरीज़ में मुक्तिबोध की कविता 'मुझे क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं' को लेकर जो चित्र-रचना कर रहे हैं, उसके कुछेक चित्र अभी हाल ही में देखने को मिले तो मुझे बरबस ही कला-रूपों के अंतर्संबंधों पर महादेवी वर्मा की 'दीपशिखा' की भूमिका याद आ गई जिसमें उन्होंने लिखा था कि 'कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वस्त सहयोगी होने की क्षमता रखता है |' इस क्षमता के बावजूद, हालाँकि आधुनिक कविता और चित्रकला के बीच रिश्ता पिछले वर्षों में कमजोर पड़ता गया है | ऐसे में अमी चरणसिंह का मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त हुए भाषा के परे के बिम्बों व छवियों के चित्रांकन के लिये प्रेरित होना उत्साह भी जगाता है और आश्वस्त भी करता है | अमी चरणसिंह पिछले करीब तीन वर्ष से भारत के एक महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की उक्त कविता को विभिन्न रूपों में चित्रित कर रहे हैं | पहले उन्होंने पेपर पर दो-एक रंगों में एक्रिलिक से काम किया, फिर कई रंगों में काम किया और हाल ही में उन्होंने पेपर पर ऑयल से उक्त कविता को 'देखा' | अमी चरणसिंह ख़ुद भी कविताएँ लिखते हैं और उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं हैं |
अमी चरणसिंह ने चित्र-रचना और कविता लिखने का काम अपने जीवन में हालाँकि देर से शुरू किया - इतनी देर से कि उनके कॉलिज के साथियों को हैरान होकर उनसे पूछना पड़ा कि 'यह' सब कब हुआ ? कला की दुनिया में अमी चरणसिंह की सक्रियता कला समीक्षक के तौर पर शुरू हुई थी | हालाँकि इससे पहले, कॉलिज के दिनों में उन्होंने प्रसिद्व चित्रकार भाऊ समर्थ पर एक किताब का संपादन किया था | कला प्रदर्शनियों के साथ-साथ उन्होंने फिल्मों पर भी समीक्षात्मक रिपोर्ट्स लिखीं; और फिर वह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने लगे | उन्होंने कला और कलाकारों पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाईं | यही सब करते हुए वह कब चित्र बनाने लगे, यह दूसरों को तो क्या शायद उन्हें भी पता नहीं चला | जब 'पता' चला तब उन्होंने चित्र-रचना के काम को गंभीरता से लेना शुरू किया | मध्य प्रदेश के विभिन्न शहरों में आयोजित प्रदर्शनियों में अपने चित्रों को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उन्होंने दिल्ली व मुंबई में भी अपने चित्रों को प्रदर्शित किया है | मुक्तिबोध की कविता पर अमी चरणसिंह ने जो चित्र बनाए हैं उनमें चित्रकला की जटिल शास्त्रीयता भी है, और इसीलिए यह उल्लेखनीय भी हैं | मुक्तिबोध की कविताओं पर फिल्में भी बन चुकीं हैं, जिन्हें प्रसिद्व फिल्म निर्माता मणि कौल ने संभव किया था | ज़ाहिर है कि मुक्तिबोध की कविताएँ दूसरे कला माध्यमों में काम करने वाले कलाकारों के लिये प्रेरणा और चुनौती की तरह रहीं हैं | अमी चरणसिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया और निभाया, तो यह कला के प्रति उनकी प्रतिबद्वता का सुबूत भी है |
अमी चरणसिंह ने कला के प्रति अपनी प्रतिबद्वता का सुबूत प्रस्तुत करते हुए वास्तव में हिंदी की कला-चिंतन की उस समृद्व परंपरा को ही निभाने की कोशिश की है, जिसके तहत अनेक कवि-कथाकारों ने चित्रकला में भी अपनी सक्रियता रखी और दिखाई है | महादेवी वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, जगदीश गुप्त, रामकुमार, लक्ष्मीकांत वर्मा, चंद्रकांत देवताले, विपिन अग्रवाल, विजेंद्र, नरेन्द्र जैन आदि कुछ नाम तुरंत याद आ रहे हैं - नाम और भी हैं तथा इस सूची को और बढाया जा सकता है | मकबूल फ़िदा हुसैन, गुलाम मोहम्मद शेख, जगदीश स्वामीनाथन, जय झरोटिया जैसे मशहूर चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं | मुझे याद आया कि ऑल इंडिया फाइन ऑर्ट एण्ड क्रॉफ्ट सोसायटी (आइफैक्स) ने कई वर्ष पहले कविता लिखने वाले चित्रकारों के काव्यपाठ का कार्यक्रम आयोजित किया था | कवियों द्वारा चित्रकारों और या उनके चित्रों पर कविताएँ लिखने के तो असंख्य उदाहरण मिल जायेंगे | इसका उल्टा भी खूब हुआ है | चित्रकारों ने कविताओं को केनवस पर उतारने में भी काफी दिलचस्पी ली हैं | कालिदास की प्रसिद्व काव्य-कृति 'मेघदूत' चित्रकारों को शुरू से ही आकर्षित करती रही है | 'बिहारी सतसई' ने अनेक चित्रकारों को अपनी ओर आकर्षित किया | यहाँ यह याद करना भी प्रासंगिक होगा कि पिकासो से कवियों के कितने गहरे रिश्ते थे और नये काव्यान्दोलनों को जन्म देने में उसके अभिनव प्रयोगों की क्या भूमिका थी | गुलाम मोहम्मद शेख ने कविताएँ तो लिखी हीं, कबीर की कविताओं पर एक पूरी श्रृंखला भी बनाई थी | विवान सुन्दरम ने कई कविताओं पर पेंटिंग्स बनाई हैं | जय झरोटिया ने सौमित्र मोहन की 'लुकमान अली' कविता पर एक पूरी श्रृंखला बनाई थी | अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्त करने के लिये शब्दों के अतिरिक्त रंगों और रेखाओं का सहारा लेने का उपक्रम सिर्फ हिंदी के लेखकों ने ही नहीं किया है, बल्कि अन्य भाषों के लेखकों के बीच भी इस तरह के उदाहरण मिल जायेंगे | यहाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर को याद करना प्रासंगिक होगा | फ्रांसीसी कवि एपोलिनेयर और आंद्रे ब्रेतों ने तो अपने समय के प्रसिद्व अतियथार्थवादी (सुर्रियलिस्ट) कला-आंदोलन में खासी सक्रियता दिखाई थी |
कविता, भाषा और मानवीय अनुभवों की प्रतीकात्मक दुनिया है | चित्रकला इस प्रतीकात्मक दुनिया को चाक्षुषता से जोड़ कर दृश्य में रूपांतरित करते हुए प्रभावोत्पादक ढंग से अधिक स्पष्ट और सम्प्रेषणीय बना सकती है | कविता शब्दों का संसार अवश्य है; किंतु साहित्य में कविता ही ऐसी विधा है जिसमें शब्दों का अतिरिक्त अर्थ बहुत अधिक होता है | वह अनुभव, यथार्थ, स्मृति, कल्पना और स्वप्नों की सांकेतिक बुनावट के साथ ही द्वंद्व, तनाव, व्यंग्य और यातना की विस्फोटक दुनिया भी है | चित्र में उसे साधना स्वाभाविक रूप से एक बड़ी चुनौती है - तब तो और भी जबकि कवि-कर्म और चित्र-रचना दोनों ही व्यक्तिगत साधना की चीज़ हैं | भले ही - जैसा कि महादेवी वर्मा ने कहा है कि - 'कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वस्त सहयोगी होने की क्षमता रखता है', लेकिन फिर भी उनमें एक के दूसरे पर प्रभाव तलाशने की कोशिश फिजूल की बात ही समझी जाती है | कवि-कर्म और चित्र-रचना एक दूसरे को प्रभावित और प्रेरित तो करते हैं तथा उनमें संबंध भी होता है; लेकिन कविता कविता का काम करती है, और चित्र चित्र का | दोनों का काम और प्रभाव अलग-अलग ही होगा | इसीलिए मुक्तिबोध की कविता पर बनाए गये अमी चरणसिंह के चित्रों को देखते हुए मैं उनमें मुक्तिबोध की कविता को नहीं अमी चरणसिंह की रचनात्मकता को समझने / पहचानने की कोशिश करता हूँ - ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान यूँ भी मुक्तिबोध के ही दिये गये पद हैं |
मध्यकाल के बाद और खासतौर से उत्तर मध्यकाल के बाद चित्रकला व कविता के बीच जो प्रभावपरक रिश्ता बना था वह आधुनिक परिवेश में किसी नवोत्थान के साथ आगे नहीं बढ़ सका और धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया | उक्त रिश्ता कमजोर जरूर पड़ गया है, पर पूरी तरह बिसरा नहीं है; और उस रिश्ते को नये रूप में खोजने / बनाने के प्रयास भी जारी दिखते ही हैं | ऐसे में, मुक्तिबोध की कविताओं पर अमी चरणसिंह का सीरीज़ में काम करना - मैं फिर दोहराना चाहूँगा कि - आश्वस्त करता है |
Monday, May 31, 2010
Tuesday, May 11, 2010
पारुल की चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है
त्रिवेणी कला दीर्घा में 28 मई से शुरू हो रही पारुल आर्य के चित्रों की 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक एकल प्रदर्शनी में व्यक्ति के विश्वास के विविधतापूर्ण रूपों की अभिव्यक्ति को देखा जा सकेगा | पारुल के चित्रों की यह चौथी एकल प्रदर्शनी है, जो करीब तीन वर्ष बाद हो रही है | इससे पहले, सितंबर 2007 में 'नेचर' शीर्षक से उनके चित्रों की तीसरी एकल प्रदर्शनी हुई थी | उससे पहले, वर्ष 2006 तथा वर्ष 2004 में क्रमशः 'एक्सप्रेशंस' तथा 'सिटी स्पेस' शीर्षक से उन्होंने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी की थी | इस बीच अमेरिका के कोलंबिया में पोर्टफोलिओ आर्ट गैलरी में भी कला प्रेक्षकों व दर्शकों को उन्होंने अपने चित्रों को दिखाया है | 'ह्युमनिटी चैलेंजेड' शीर्षक से नई दिल्ली की ललित कला अकादमी की कला दीर्घा में आयोजित हुई एक समूह प्रदर्शनी में भी पारुल ने अपने चित्रों को प्रदर्शित किया था | पारुल को अपनी कला प्रतिभा को निखारने तथा उसे वैचारिक स्वरूप प्रदान करने का मौका उस समय मिला, जब उन्होंने नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविधालय से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया | कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के साथ पारुल ने अपनी जिस कला-यात्रा को समकालीन कला जगत में विधिवत रूप से शुरू किया, उसमें उन्होंने प्रायः एक दार्शनिक भावभूमि पर खड़े होकर ही अपने चित्रों की रचना की है | पारुल आर्यकी सिटी स्पेस श्रृंखला की 'सिटी ऑफ कलर्स', 'पर्पल हेज', 'रिफ्लेक्शन ऑफ नाईट', 'इन द लैंपलाइट' शीर्षक चित्रकृतियाँ तथा ह्युमनिटी चैलेंजेड श्रृंखला की 'द सर्च', 'इयरिंग', 'माई इंसपिरेशन', 'होप' शीर्षक चित्रकृतियाँ न केवल अपनी अंतर्वस्तु में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं, बल्कि फॉर्म में भी महत्त्वपूर्ण हैं |
इनके अलावा 'डिवोशन', 'वाइल्ड फैंटेसी', 'सन एण्ड लीव्स', 'ए ट्री बाय माई विंडो' शीर्षक चित्रकृतियों में भी गंभीर दार्शनिक विमर्शों को पारुल ने जिस तरह चित्रित किया है, उसके चलते ही उन्हें युवा कलाकारों के बीच एक अलग पहचान मिली है | 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक की चित्रकृतियों में जीवन के द्वैत को बखूबी दर्शाया गया है | जीवन के द्वंद्वात्मक स्वरूप को चित्रित करती ये कलाकृतियाँ पारुल की रचनात्मकता के एक नये आयाम से हमारा परिचय कराती हैं | इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है | उनकी कला यात्रा के इस चरण की चित्रकृतियों का चरित्र रूपकालंकारिक तो है ही, साथ ही वह रेटॉरिकल भी है | पारुल की पेंटिंग्स से गुज़रना अपने आस-पास की दुनिया को अपने भीतर जगह बनाते हुए महसूस करते गुज़रने जैसा है, और इस तरह एक अलग अनुभव देता है | यूं तो प्रत्येक कलाकार के लिये यह अभीष्ट है कि वह अपनी विशिष्टताओं और सृजन शैली के माध्यम से एक भिन्न तरह की कला का सृजन करे | वास्तव में यह सचमुच की जीती जागती दुनिया का ही कलात्मक प्रत्याख्यान होता है जिसमें उस कलाकार की अपनी जीवन-दृष्टि, संवेदना और अनुभव समाहित होते हैं |
पारुल के कुछेक काम एक चेहरे के इर्द-गिर्द हैं - अपने रूपों, विरूपणों और विकृतियों में व्यक्त होता एक मानवीय चेहरा | लेकिन उनके कई कामों में मानवीय चेहरे या आकृतियों के साथ वाहय-जगत की उपस्थिती भी दिखती है | यह वाहय-जगत कभी व्यक्ति (चेहरे) के कंट्रास्ट में है, कभी द्वंद्व में तो कभी सहयोजन में | व्यक्ति के आभ्यंतर और वहिर्जगत का संबंध पारुल के चित्रों में अनेक रूपाकारों में तो दर्ज है ही, उसे उनके अमूर्त चित्रों में भी पहचाना जा सकता है | पारुल के चित्रों का प्रतिसंसार एक ओर मनुष्य के अंतर्जगत की उथल-पुथल को रूपायित करता है, तो दूसरी ओर व्यक्ति को बाहय-परिवेश से द्वंद्वरत दिखाता है | पारुल के चित्रों की विवरण-बहुलता एक खास अर्थवत्ता रखती है और इसी कारण से हमें हमारे विश्वासों और हमारे आसपास की स्थितियों के प्रति सोचने-विचारने के लिये प्रेरित करती है |
28 मई से नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में शुरू हो रही 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक एकल प्रदर्शनी में पारुल आर्य के चित्रों को 6 जून तक देखा जा सकेगा |
इनके अलावा 'डिवोशन', 'वाइल्ड फैंटेसी', 'सन एण्ड लीव्स', 'ए ट्री बाय माई विंडो' शीर्षक चित्रकृतियों में भी गंभीर दार्शनिक विमर्शों को पारुल ने जिस तरह चित्रित किया है, उसके चलते ही उन्हें युवा कलाकारों के बीच एक अलग पहचान मिली है | 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक की चित्रकृतियों में जीवन के द्वैत को बखूबी दर्शाया गया है | जीवन के द्वंद्वात्मक स्वरूप को चित्रित करती ये कलाकृतियाँ पारुल की रचनात्मकता के एक नये आयाम से हमारा परिचय कराती हैं | इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है | उनकी कला यात्रा के इस चरण की चित्रकृतियों का चरित्र रूपकालंकारिक तो है ही, साथ ही वह रेटॉरिकल भी है | पारुल की पेंटिंग्स से गुज़रना अपने आस-पास की दुनिया को अपने भीतर जगह बनाते हुए महसूस करते गुज़रने जैसा है, और इस तरह एक अलग अनुभव देता है | यूं तो प्रत्येक कलाकार के लिये यह अभीष्ट है कि वह अपनी विशिष्टताओं और सृजन शैली के माध्यम से एक भिन्न तरह की कला का सृजन करे | वास्तव में यह सचमुच की जीती जागती दुनिया का ही कलात्मक प्रत्याख्यान होता है जिसमें उस कलाकार की अपनी जीवन-दृष्टि, संवेदना और अनुभव समाहित होते हैं |
पारुल के कुछेक काम एक चेहरे के इर्द-गिर्द हैं - अपने रूपों, विरूपणों और विकृतियों में व्यक्त होता एक मानवीय चेहरा | लेकिन उनके कई कामों में मानवीय चेहरे या आकृतियों के साथ वाहय-जगत की उपस्थिती भी दिखती है | यह वाहय-जगत कभी व्यक्ति (चेहरे) के कंट्रास्ट में है, कभी द्वंद्व में तो कभी सहयोजन में | व्यक्ति के आभ्यंतर और वहिर्जगत का संबंध पारुल के चित्रों में अनेक रूपाकारों में तो दर्ज है ही, उसे उनके अमूर्त चित्रों में भी पहचाना जा सकता है | पारुल के चित्रों का प्रतिसंसार एक ओर मनुष्य के अंतर्जगत की उथल-पुथल को रूपायित करता है, तो दूसरी ओर व्यक्ति को बाहय-परिवेश से द्वंद्वरत दिखाता है | पारुल के चित्रों की विवरण-बहुलता एक खास अर्थवत्ता रखती है और इसी कारण से हमें हमारे विश्वासों और हमारे आसपास की स्थितियों के प्रति सोचने-विचारने के लिये प्रेरित करती है |
28 मई से नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में शुरू हो रही 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक एकल प्रदर्शनी में पारुल आर्य के चित्रों को 6 जून तक देखा जा सकेगा |
Friday, May 7, 2010
रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों में भौतिकता और ऐंद्रियता की विशिष्टताएं अमूर्त सौंदर्य के उन्हीं साहित्यिक सूत्रों के अधीन हैं जो स्वयं उनके काव्य को मनोरमता और भव्यता की कल्पनाओं से परिपुष्ट करती हैं
रवीन्द्रनाथ टैगोर की आज 150 वीं वर्षगांठ शुरू हो रही है | 7 मई 1861 को जन्मे रवीन्द्रनाथ ने अस्सी वर्ष की उम्र पाई थी | 7 अगस्त 1941 को अंतिम साँस लेने से पहले एक हजार से ज्यादा कविताओं, दो हजार से ज्यादा गीतों, करीब दो दर्जन नाटकों, आठ उपन्यासों, कहानियों के आठ से ज्यादा संकलनों, राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक-साहित्यिक विषयों पर लिखे तमाम लेखों की रचना करने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर को जानने वाले लोगों में बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उन्होंने करीब 2500 पेंटिंग्स व स्केचेज भी बनाए हैं, जिनमें से 1500 से कुछ ज्यादा शांतिनिकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविधालय के संग्रहालय में देखे जा सकते हैं | वर्ष 1913 में 52 वर्ष की उम्र में साहित्य के लिये नोबेल पुरुस्कार प्राप्त करने वाले रवीन्द्रनाथ के चित्रों की पहली प्रदर्शनी वर्ष 1930 में जब हुई थी, तब वह 69 वर्ष के थे | दिलचस्प संयोग है कि 80 वर्ष पहले पेरिस में हुई रवीन्द्रनाथ के चित्रों की यह पहली प्रदर्शनी इन्हीं दिनों हुई थी | 5 मई से 19 मई 1930 के बीच हुई प्रदर्शनी की इतनी जोरदार चर्चा हुई कि इसके तुरंत बाद यह प्रदर्शनी कई यूरोपीय देशों में हुई | भारत में उनके चित्रों की पहली प्रदर्शनी पेरिस में हुई प्रदर्शनी के ठीक एक वर्ष बाद, वर्ष 1931 में कलकत्ता में हुई |
रवीन्द्रनाथ में चित्रकला के प्रति यूं तो बचपन से ही उत्सुकता का भाव था | अपने बड़े भाई ज्योतिरिन्द्रनाथ को स्केच बनाते देख वह ड्राइंग के प्रति आकर्षित व प्रेरित हुए थे और बचपन में उन्होंने कुछेक ड्राइंग व स्केच बनाए भी थे | उन दिनों उन्हें चूंकि सभी कुछ आकर्षित करता था और अपनी बहुआयामी प्रतिभा के कारण वह अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में सक्रिय हो रहे थे, इसलिए चित्रकला की औपचारिक शिक्षा वह नहीं ले सके |
इसके बावजूद चित्रकला के प्रति अपनी अदम्य आकांक्षा से वह मुक्त नहीं हो सके और रेखांकन व चित्रांकन, रंग और रूप उनको हमेशा ही सहज भाव से उल्लसित तथा उद्वेलित करते रहे | इसी का नतीजा रहा कि जब भी और जैसे भी उनको यह अंतर्प्रेरणा मिली कि वह चित्रों के माध्यम से अपनी गहनतम अनुभूतियों को बहिर्गमित कर सकते हैं, उन्होंने निहायत सरलता व सुगमता से अपना मंतव्य पूरा कर लिया | चित्रकला के संदर्भ में उनकी सृजनात्मक ऊर्जा इतने तीव्र आवेगात्मक रूप में अवतरित हुई कि उसने उन्हें जानने वालों के साथ-साथ ख़ुद उन्हें भी चकित और स्तंभित किया | उन्होंने कहा भी है कि चित्रकला के लिये उन्हें जो मौका मिला वह परमपिता से उन्हें अतिरिक्त जीवन के रूप में मिला | रवीन्द्रनाथ ने कला की कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन अपनी इस कमी को उन्होंने अपने लिये एक अवसर में बदल दिया और रंग व रेखाओं की अभिव्यक्ति में उन्होंने नये और अभिनव आवेगपूर्ण प्रयोग किए | यह प्रयोग वह इसलिए भी कर सके क्योंकि बंगाल चित्रशैली से वह नितांत अपरिचित व अछूते ही थे | इस अछूतेपन के कारण ही वह बंगाल चित्रशैली को उसकी जड़ और रूढ़ मान्यताओं से मोक्ष दिलवा सके | यह काम रवीन्द्रनाथ जैसी प्रतिभा के लिये ही संभव था | उनके इन्हीं आवेगपूर्ण प्रयोगों के चलते रवीन्द्रनाथ की कला-भाषा का त्वरित किंतु क्रमिक विकास हुआ | रवीन्द्रनाथ ने अपने अंतर्जगत को आलोकित करने के लिये जिस समय चित्रकला को चुना था, उस समय तक वह एक महान कवि और प्रखर दार्शनिक के रूप में अपनी प्रभावी पहचान बना चुके थे | ज़ाहिर है कि एक कवि और दार्शनिक के रूप में अपना सर्वश्रेष्ठ दे देने के बाद भी उनके अंतर्जगत में संवेगों का खजाना अभी बाकी था जो रूपायित होने के लिये एक भिन्न माध्यम पर सवार होने का इंतजार कर रहा था | रवीन्द्रनाथ ने इस भिन्न माध्यम के रूप में चित्रकला को पहचाना और कला-जगत को अनेकानेक अमूल्य निधियाँ प्रदान कीं |
रवीन्द्रनाथ के चित्रों से स्थापित कृतियों जैसी परिपूर्णता की मांग करना अन्याय ही होगा, क्योंकि उनकी चित्र-कृतियाँ वृद्वावस्था के तथा एक ऐसे हाथ के काम हैं जो कलागत अनुशासन से सर्वथा अनभिज्ञ था | इसका अभाव उनकी विशेषता का अंग है, जिसमें विसंगति, दृष्टि व रूपरंग की न होकर, रूपरंग और प्रस्तुति की है | यह अभाव स्वयं रूपभाषा में ही एक प्रकार की कारुणिकता उत्पन्न करता है | अपने काम की समस्त मांगें पूरी कर रवीन्द्रनाथ जब काम की तन्मयता से बाहर आते थे तब वह काम की प्रासंगिकता पर सोचते निश्चय ही थे | फिर भी वह जो काम कर रहे थे वह उन्हें करना ही था, क्योंकि मनोवेगों की अनिवार्यता ने उनके हाथ की शक्ति-सीमाओं पर अधिकार कर लिया था | इसके चलते रवीन्द्रनाथ रचना प्रक्रिया की लय और तर्कसंगति के अनुकूल काम करने को 'विवश' थे | इस पूरी प्रक्रिया में वह जैसे अपने भीतर से दिशानिर्देशित थे, उन्होंने इस भीतरी निर्देशन को मानते हुए काम में हाथ लगाया, मनोवेग को एक रूपाकार में बदला और एक रूपरंग दे दिया | चित्र बन जाने पर ख़ुद रवीन्द्रनाथ भी चकित होते थे | चित्र में यद्यपि पूर्णता का अभाव रहता, पर वह पूर्ण प्रतीत होती | शायद यही कारण रहा होगा कि वह अपनी किसी चित्रकृति का शीर्षक न तो दे पाए और न ही उन्होंने दिया |
रवीन्द्रनाथ में सृजनशीलता का सीधा नाता उनके व्यक्तिगत आत्मसंलाप से था | वह वही चित्रित कर रहे थे जो वह स्वयं थे | उनकी रचनात्मक मेधा और उनके आत्म-प्रकाश के बीच में कोई छाया न थी | समस्त जीवन और उसकी क्षणभंगुरता एवं निस्सारता का भाव उनकी कृतियों में देखा जा सकता है, साथ ही जीवन और आकांक्षा के अविभक्त, स्पंदनशील रूपाकार को भी ये चित्र निरुपित करते हैं | यही उनकी कविता का भी मुख्य स्वर है | रवीन्द्रनाथ के चित्रों में भौतिकता और ऐंद्रियता की विशिष्टताएं अमूर्त सौंदर्य के उन्हीं साहित्यिक सूत्रों के अधीन हैं जो स्वयं उनके काव्य को मनोरमता और भव्यता की कल्पनाओं से परिपुष्ट करती हैं | रूपों और भंगिमाओं का विस्तार अभिव्यक्ति द्वारा निर्दिष्ट होता है और जीवन की चलती-फिरती दृश्यावली इस प्रमुख धारणा के अधीन है कि जीवन की प्रत्येक घटना एक साथ मानवीय और देवीय है | रवीन्द्रनाथ की कला अपनी अकृत्रिमता, करुणा और मनोहरता से हमें उद्वीप्त करती है |
रवीन्द्रनाथ में चित्रकला के प्रति यूं तो बचपन से ही उत्सुकता का भाव था | अपने बड़े भाई ज्योतिरिन्द्रनाथ को स्केच बनाते देख वह ड्राइंग के प्रति आकर्षित व प्रेरित हुए थे और बचपन में उन्होंने कुछेक ड्राइंग व स्केच बनाए भी थे | उन दिनों उन्हें चूंकि सभी कुछ आकर्षित करता था और अपनी बहुआयामी प्रतिभा के कारण वह अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में सक्रिय हो रहे थे, इसलिए चित्रकला की औपचारिक शिक्षा वह नहीं ले सके |
इसके बावजूद चित्रकला के प्रति अपनी अदम्य आकांक्षा से वह मुक्त नहीं हो सके और रेखांकन व चित्रांकन, रंग और रूप उनको हमेशा ही सहज भाव से उल्लसित तथा उद्वेलित करते रहे | इसी का नतीजा रहा कि जब भी और जैसे भी उनको यह अंतर्प्रेरणा मिली कि वह चित्रों के माध्यम से अपनी गहनतम अनुभूतियों को बहिर्गमित कर सकते हैं, उन्होंने निहायत सरलता व सुगमता से अपना मंतव्य पूरा कर लिया | चित्रकला के संदर्भ में उनकी सृजनात्मक ऊर्जा इतने तीव्र आवेगात्मक रूप में अवतरित हुई कि उसने उन्हें जानने वालों के साथ-साथ ख़ुद उन्हें भी चकित और स्तंभित किया | उन्होंने कहा भी है कि चित्रकला के लिये उन्हें जो मौका मिला वह परमपिता से उन्हें अतिरिक्त जीवन के रूप में मिला | रवीन्द्रनाथ ने कला की कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन अपनी इस कमी को उन्होंने अपने लिये एक अवसर में बदल दिया और रंग व रेखाओं की अभिव्यक्ति में उन्होंने नये और अभिनव आवेगपूर्ण प्रयोग किए | यह प्रयोग वह इसलिए भी कर सके क्योंकि बंगाल चित्रशैली से वह नितांत अपरिचित व अछूते ही थे | इस अछूतेपन के कारण ही वह बंगाल चित्रशैली को उसकी जड़ और रूढ़ मान्यताओं से मोक्ष दिलवा सके | यह काम रवीन्द्रनाथ जैसी प्रतिभा के लिये ही संभव था | उनके इन्हीं आवेगपूर्ण प्रयोगों के चलते रवीन्द्रनाथ की कला-भाषा का त्वरित किंतु क्रमिक विकास हुआ | रवीन्द्रनाथ ने अपने अंतर्जगत को आलोकित करने के लिये जिस समय चित्रकला को चुना था, उस समय तक वह एक महान कवि और प्रखर दार्शनिक के रूप में अपनी प्रभावी पहचान बना चुके थे | ज़ाहिर है कि एक कवि और दार्शनिक के रूप में अपना सर्वश्रेष्ठ दे देने के बाद भी उनके अंतर्जगत में संवेगों का खजाना अभी बाकी था जो रूपायित होने के लिये एक भिन्न माध्यम पर सवार होने का इंतजार कर रहा था | रवीन्द्रनाथ ने इस भिन्न माध्यम के रूप में चित्रकला को पहचाना और कला-जगत को अनेकानेक अमूल्य निधियाँ प्रदान कीं |
रवीन्द्रनाथ के चित्रों से स्थापित कृतियों जैसी परिपूर्णता की मांग करना अन्याय ही होगा, क्योंकि उनकी चित्र-कृतियाँ वृद्वावस्था के तथा एक ऐसे हाथ के काम हैं जो कलागत अनुशासन से सर्वथा अनभिज्ञ था | इसका अभाव उनकी विशेषता का अंग है, जिसमें विसंगति, दृष्टि व रूपरंग की न होकर, रूपरंग और प्रस्तुति की है | यह अभाव स्वयं रूपभाषा में ही एक प्रकार की कारुणिकता उत्पन्न करता है | अपने काम की समस्त मांगें पूरी कर रवीन्द्रनाथ जब काम की तन्मयता से बाहर आते थे तब वह काम की प्रासंगिकता पर सोचते निश्चय ही थे | फिर भी वह जो काम कर रहे थे वह उन्हें करना ही था, क्योंकि मनोवेगों की अनिवार्यता ने उनके हाथ की शक्ति-सीमाओं पर अधिकार कर लिया था | इसके चलते रवीन्द्रनाथ रचना प्रक्रिया की लय और तर्कसंगति के अनुकूल काम करने को 'विवश' थे | इस पूरी प्रक्रिया में वह जैसे अपने भीतर से दिशानिर्देशित थे, उन्होंने इस भीतरी निर्देशन को मानते हुए काम में हाथ लगाया, मनोवेग को एक रूपाकार में बदला और एक रूपरंग दे दिया | चित्र बन जाने पर ख़ुद रवीन्द्रनाथ भी चकित होते थे | चित्र में यद्यपि पूर्णता का अभाव रहता, पर वह पूर्ण प्रतीत होती | शायद यही कारण रहा होगा कि वह अपनी किसी चित्रकृति का शीर्षक न तो दे पाए और न ही उन्होंने दिया |
रवीन्द्रनाथ में सृजनशीलता का सीधा नाता उनके व्यक्तिगत आत्मसंलाप से था | वह वही चित्रित कर रहे थे जो वह स्वयं थे | उनकी रचनात्मक मेधा और उनके आत्म-प्रकाश के बीच में कोई छाया न थी | समस्त जीवन और उसकी क्षणभंगुरता एवं निस्सारता का भाव उनकी कृतियों में देखा जा सकता है, साथ ही जीवन और आकांक्षा के अविभक्त, स्पंदनशील रूपाकार को भी ये चित्र निरुपित करते हैं | यही उनकी कविता का भी मुख्य स्वर है | रवीन्द्रनाथ के चित्रों में भौतिकता और ऐंद्रियता की विशिष्टताएं अमूर्त सौंदर्य के उन्हीं साहित्यिक सूत्रों के अधीन हैं जो स्वयं उनके काव्य को मनोरमता और भव्यता की कल्पनाओं से परिपुष्ट करती हैं | रूपों और भंगिमाओं का विस्तार अभिव्यक्ति द्वारा निर्दिष्ट होता है और जीवन की चलती-फिरती दृश्यावली इस प्रमुख धारणा के अधीन है कि जीवन की प्रत्येक घटना एक साथ मानवीय और देवीय है | रवीन्द्रनाथ की कला अपनी अकृत्रिमता, करुणा और मनोहरता से हमें उद्वीप्त करती है |
Friday, April 16, 2010
नीनू विज के चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं
नीनू विज की गुड़गाँव के एपैरल हॉउस में स्थित एपिसेंटर कला दीर्घा में 17 अप्रैल से आयोजित होने जा रही एकल प्रदर्शनी के शीर्षक 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' ने मुझे हंगरी के विख्यात कला इतिहासकार आर्नल्ड हाऊजर की वह उक्ति याद दिला दी, जिसमें उन्होंने कलाकृति की तुलना दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की से की है | 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' शीर्षक में मुझे ठीक खिड़की वाले अर्थ ही ध्वनित होते लगे हैं जो भविष्य की ओर - दुनिया की ओर खुलने का दावा या वायदा कर रहा है | नीनू विज की कलाकृतियों से मैं परिचित हूँ और उनकी कलाकृतियों को लगातार मैं देखता रहा हूँ | नीनू पिछले काफी समय से प्रकृति-उपकरणों को लेकर ही काम कर रहीं हैं और इन उपकरणों की एक समानता के बावजूद हर बार उनके काम में एक और गहराई दीख पड़ती है | नीनू विज के कैनवस पहली नज़र में लैंडस्केप का आभास देते हैं | लेकिन उनके चित्र निरे लैंडस्केप नहीं हैं | उनके चित्रों में प्रकृति-उपकरण किसी यथातथ्य चित्रण के रूप में प्रकट नहीं हैं, बल्कि उसी रूप में वह कैनवस पर दिखते हैं, जिसमें वह उनके मन के आकाश को बदलते रहे हैं या जिस रूप में नीनू विज के मन का आकाश उनमें अपने को प्रक्षेपित करता रहा है | भीतरी-बाहरी 'दुनिया' और स्पेस के एक गहरे अंतर्संबंध को नीनू विज के चित्रों में बराबर से साफ़ देखा / पहचाना जा सकता है | इसीलिए 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' शीर्षक मुझे बहुत मौजूं भी लगा और सटीक भी | इस शीर्षक के चलते, नीनू विज के पिछले काम जब मेरी स्मृति में आते गये तो सहसा आर्नल्ड हाऊजर की खिड़की वाली उक्ति याद आ गई |
आर्नल्ड हाऊजर ने कलाकृति की तुलना जब दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की से करने की सोची होगी, तब उनका आशय यही रहा होगा कि देखने वाला चाहे तो सारा ध्यान खिड़की पर ही दे या बिल्कुल ही न दे | वह चाहे तो खिड़की के शीशे की गुणवत्ता, संरचना या रंग से बिना कोई मतलब रखे सीधे बाहर के दृश्य का अवलोकन करे | इस तुलना के मुताबिक, कलाकृति को अनुभवों का वाहक मात्र, खिड़की का पारदर्शी कांच या आँख का चश्मा कहा जा सकता है जिस पर पहनने वाला कोई ध्यान नहीं देता है और जो एक उद्देश्य का साधन मात्र है | इसके विपरीत, कोई चाहे तो बाहरी दृश्य को नजरंदाज करके अपना सारा ध्यान खिड़की के कांच और उसकी संरचना पर ही लगाये रह सकता है; मतलब कलाकृति को एक स्वतंत्र, अपारदर्शी रूपगत संरचना, अपने बाहर की किसी भी चीज से अलग थलग स्वयंसंपूर्ण सत्ता की तरह देख सकता है | निस्संदेह, कोई भी जब तक चाहे खिड़की के कांच पर ही टकटकी लगाये रख सकता है, लेकिन ध्यान देने की और याद रखने की बात यह है कि खिड़की बाहरी दुनिया को देखने के लिये बनी होती है |
नीनू विज के चित्रों के सामने खड़े होते ही हम अपने भीतर और बाहर 'देखने' के लिये प्रेरित होते है | नीनू विज के चित्रों में हर बड़ी-छोटी चीज का रचनात्मक इस्तेमाल होता हुआ दिखता है : जितना ध्यान उन्होंने किसी रंग की व्याप्ति पर दिया है, उतना ही उस छोटे से रंग क्षेत्र पर या रंगतों पर भी दिया है जो इस व्याप्ति के बीच - तेज 'बहाव' के बीच - झांक रहा है | शायद इसीलिए नीनू विज के चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं | रंगों में यह निचोड़, रंगभाषा के बारे में हमारी संवेदना में बहुत कुछ जोड़ता है | दरअसल यहीं आकर हम यह भी पहचान सकते हैं कि नीनू विज के चित्रों में हमारे ही रंगों के साथ हमारे मानसिक चाक्षुष बौद्विक संबंध को जैसे उजागर किया गया है; और उनके रंगबोध के स्तर पर अपने समय के साथ चलने वाले भी सिद्व हुए हैं - उन्होंने उनमें अर्थ भरे हैं और उनके साथ हमारे लिये एक संवाद की स्थिति पैदा की है |
नीनू विज के अमूर्त रूपाकारों को देखते हुए मैं इस बात को लगातार रेखांकित करता हूँ कि कला के शुद्व रूपगत नियम सारतः खेल के नियमों से भिन्न नहीं होते | ये नियम जितने भी जटिल, सूक्ष्म और उम्दा हों खेल जीतने के अलावा उनका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं होता | फुटबाल के खिलाड़ी के प्रयासों को अगर हम केवल हलचल के रूप में देखेंगे तो पहले वे दुर्बोध और कुछ देर बाद उबाऊ लगने लगेंगे | कुछ देर के लिये हो सकता है कि उनकी तेजी और चपलता से थोड़ा मजा आये - लेकिन जो इस सारी दौड़धूप, उछलकूद और धक्का-मुक्की के उद्देश्य को जानता है उस विशेषज्ञ दर्शक के आनंद के मुकाबले यह अत्यंत अर्थहीन होगा | कलाकार अपनी कृति के जरिये लोगों को सूचित करने, सहमत करने, प्रभावित करने का जो लक्ष्य लेकर चला है उस लक्ष्य को यदि हम नहीं जानते या नहीं जानना चाहते तो उसकी कला के बारे में हमारी समझ फुटबाल के उस जाहिल दर्शक से बहुत आगे नहीं बढ़ सकती जो खिलाड़ियों की गति की सुंदरता के ही आधार पर फुटबाल को समझता है | कलाकृति संवाद होती है - यद्यपि यह बात पूरी तरह सही है कि इसके सफल संप्रेषण के लिये ऐसे बाहय रूप की जरूरत होती है जो एकदम प्रभावी, आकर्षक और निर्दौष हो; लेकिन यह भी उतना ही सही है कि यह रूप जो संवाद संप्रेषित करता है उसके परे इसका कोई महत्त्व नहीं होता | किसी भी कलाकृति का एक आंतरिक तर्क होता ही है और इसके विशिष्ट गुण इसके विविध स्तरों और विभिन्न मूल भावों के आंतरिक संरचनात्मक संबंधों में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते ही हैं |
यह आकस्मिक नहीं है कि केशव मलिक जैसे कला मर्मज्ञ ने कुछ ही वर्ष पहले इस तथ्य को रेखांकित किया था कि नीनू विज उन युवा चित्रकारों में हैं जिनके चित्रों में चित्रता गुण भरपूर है और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो स्वयं को देखे जाने के लिये ठिठकाती तो है ही, साथ ही अपने होने को विश्लेषित करने के लिये हमें तरह-तरह से उकसाती और प्रेरित भी करती है |
आर्नल्ड हाऊजर ने कलाकृति की तुलना जब दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की से करने की सोची होगी, तब उनका आशय यही रहा होगा कि देखने वाला चाहे तो सारा ध्यान खिड़की पर ही दे या बिल्कुल ही न दे | वह चाहे तो खिड़की के शीशे की गुणवत्ता, संरचना या रंग से बिना कोई मतलब रखे सीधे बाहर के दृश्य का अवलोकन करे | इस तुलना के मुताबिक, कलाकृति को अनुभवों का वाहक मात्र, खिड़की का पारदर्शी कांच या आँख का चश्मा कहा जा सकता है जिस पर पहनने वाला कोई ध्यान नहीं देता है और जो एक उद्देश्य का साधन मात्र है | इसके विपरीत, कोई चाहे तो बाहरी दृश्य को नजरंदाज करके अपना सारा ध्यान खिड़की के कांच और उसकी संरचना पर ही लगाये रह सकता है; मतलब कलाकृति को एक स्वतंत्र, अपारदर्शी रूपगत संरचना, अपने बाहर की किसी भी चीज से अलग थलग स्वयंसंपूर्ण सत्ता की तरह देख सकता है | निस्संदेह, कोई भी जब तक चाहे खिड़की के कांच पर ही टकटकी लगाये रख सकता है, लेकिन ध्यान देने की और याद रखने की बात यह है कि खिड़की बाहरी दुनिया को देखने के लिये बनी होती है |
नीनू विज के चित्रों के सामने खड़े होते ही हम अपने भीतर और बाहर 'देखने' के लिये प्रेरित होते है | नीनू विज के चित्रों में हर बड़ी-छोटी चीज का रचनात्मक इस्तेमाल होता हुआ दिखता है : जितना ध्यान उन्होंने किसी रंग की व्याप्ति पर दिया है, उतना ही उस छोटे से रंग क्षेत्र पर या रंगतों पर भी दिया है जो इस व्याप्ति के बीच - तेज 'बहाव' के बीच - झांक रहा है | शायद इसीलिए नीनू विज के चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं | रंगों में यह निचोड़, रंगभाषा के बारे में हमारी संवेदना में बहुत कुछ जोड़ता है | दरअसल यहीं आकर हम यह भी पहचान सकते हैं कि नीनू विज के चित्रों में हमारे ही रंगों के साथ हमारे मानसिक चाक्षुष बौद्विक संबंध को जैसे उजागर किया गया है; और उनके रंगबोध के स्तर पर अपने समय के साथ चलने वाले भी सिद्व हुए हैं - उन्होंने उनमें अर्थ भरे हैं और उनके साथ हमारे लिये एक संवाद की स्थिति पैदा की है |
नीनू विज के अमूर्त रूपाकारों को देखते हुए मैं इस बात को लगातार रेखांकित करता हूँ कि कला के शुद्व रूपगत नियम सारतः खेल के नियमों से भिन्न नहीं होते | ये नियम जितने भी जटिल, सूक्ष्म और उम्दा हों खेल जीतने के अलावा उनका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं होता | फुटबाल के खिलाड़ी के प्रयासों को अगर हम केवल हलचल के रूप में देखेंगे तो पहले वे दुर्बोध और कुछ देर बाद उबाऊ लगने लगेंगे | कुछ देर के लिये हो सकता है कि उनकी तेजी और चपलता से थोड़ा मजा आये - लेकिन जो इस सारी दौड़धूप, उछलकूद और धक्का-मुक्की के उद्देश्य को जानता है उस विशेषज्ञ दर्शक के आनंद के मुकाबले यह अत्यंत अर्थहीन होगा | कलाकार अपनी कृति के जरिये लोगों को सूचित करने, सहमत करने, प्रभावित करने का जो लक्ष्य लेकर चला है उस लक्ष्य को यदि हम नहीं जानते या नहीं जानना चाहते तो उसकी कला के बारे में हमारी समझ फुटबाल के उस जाहिल दर्शक से बहुत आगे नहीं बढ़ सकती जो खिलाड़ियों की गति की सुंदरता के ही आधार पर फुटबाल को समझता है | कलाकृति संवाद होती है - यद्यपि यह बात पूरी तरह सही है कि इसके सफल संप्रेषण के लिये ऐसे बाहय रूप की जरूरत होती है जो एकदम प्रभावी, आकर्षक और निर्दौष हो; लेकिन यह भी उतना ही सही है कि यह रूप जो संवाद संप्रेषित करता है उसके परे इसका कोई महत्त्व नहीं होता | किसी भी कलाकृति का एक आंतरिक तर्क होता ही है और इसके विशिष्ट गुण इसके विविध स्तरों और विभिन्न मूल भावों के आंतरिक संरचनात्मक संबंधों में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते ही हैं |
यह आकस्मिक नहीं है कि केशव मलिक जैसे कला मर्मज्ञ ने कुछ ही वर्ष पहले इस तथ्य को रेखांकित किया था कि नीनू विज उन युवा चित्रकारों में हैं जिनके चित्रों में चित्रता गुण भरपूर है और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो स्वयं को देखे जाने के लिये ठिठकाती तो है ही, साथ ही अपने होने को विश्लेषित करने के लिये हमें तरह-तरह से उकसाती और प्रेरित भी करती है |
Tuesday, April 6, 2010
मूर्तिभंजक चित्रकार फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा ने अपने जीवन में और अपने काम में हमेशा ही चीजों को व स्थितियों को तार्किक तरीके से समझने का प्रयास किया
धूमीमल ऑर्ट गैलरी के सौजन्य से फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के बहुत से काम एक साथ देखने का मौका हमें मिलने जा रहा है, तो यह सचमुच एक बड़े रोमांच की बात है | दिल्ली में धूमीमल ऑर्ट गैलरी के रवि जैन को सूज़ा के काम के एक बड़े संग्रहकर्ता के रूप में जाना-पहचाना जाता है | दिल्ली में, हालाँकि इब्राहिम अलक़ाज़ी के पास भी सूज़ा के चित्रों का अच्छा खासा संग्रह है | इब्राहिम अलक़ाज़ी के पास तो सूज़ा की बिल्कुल शुरुआती पेंटिंग्स भी हैं, जिन पर न्यूटन के नाम से हस्ताक्षर हैं | इन पेंटिंग्स को अलक़ाज़ी ने कुछ साल पहले - सूज़ा जब जीवित थे - अपने एक शो में प्रदर्शित भी किया था | साल 2002 के मार्च माह की 28 तारीख को हुए सूज़ा के निधन के बाद वढेरा ऑर्ट गैलरी ने हालाँकि 'ए ट्रिब्यूट टु फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा' शीर्षक से सूज़ा के चित्रों की एक बड़ी प्रदर्शनी की थी, लेकिन उसमें सूज़ा के पचास और साठ के दशक में किए गये काम ही ज्यादा थे; बाद के भी कुछ काम थे, पर उनकी संख्या कम थी | धूमीमल ऑर्ट गैलरी के सौजन्य से ललित कला अकादमी की दीर्घाओं में 9 अप्रैल से सूज़ा के चित्रों की जो प्रदर्शनी होने जा रही है, उसमें सूज़ा के साल 1940 से 1990 के बीच किए गये कामों में से चुने गये करीब दो सौ कामों को प्रदर्शित करने की तैयारी है | इस हिसाब से कह सकते हैं कि निधन के बाद सूज़ा के चित्रों की यह सबसे बड़ी प्रदर्शनी है | इस तरह इसे सूज़ा की सिंहावलोकन प्रदर्शनी के रूप में भी देखा जा सकता है | इस प्रदर्शनी को यशोधरा डालमिया ने क्यूरेट किया है |
सूज़ा पहले भारतीय चित्रकार हैं जिन्हें पश्चिम के कला प्रेमियों, प्रशंसकों, प्रेक्षकों व व्यापारियों ने मान्यता दी और एक कलाकार के रूप में जिनका लोहा माना | प्रसिद्व दार्शनिक व चिंतक एज़रा पाउंड ने घोषित किया था कि 'सूज़ा महान है और वह इस बात को जानता भी है |' सूज़ा 1949 में लंदन चले गये थे | हालाँकि वह वहाँ गये थे घूमने - फिरने के लिहाज से और म्यूजियम आदि देखने ताकि उनका ज्ञान और सौंदर्यशास्त्र की समझ बढ़ सके | लेकिन वहाँ पहुँच कर उनका पेंटिग करने में ऐसा मन लगा कि फिर उन्होंने वहीं बस जाने का फैसला कर लिया | उनकी पत्नी मारिया ने वहाँ नौकरी की और उन्होंने पेंटिंग | 1955 में उन्होंने लंदन में पहली प्रदर्शनी की | उस समय तक हालाँकि वह वहाँ खासे जाने - पहचाने हो गये थे | प्रदर्शनी के बाद तो वह वहाँ पूरी तरह स्थापित हो गये | महान कलाकार हेनरी मूर और ग्रैम सदरलैंड वहाँ उनके खास दोस्तों में थे | 1956 में सूज़ा स्टॉकहोम गये | वहाँ वह अकबर पदमसी और हैदर रज़ा के साथ मैडम कुटूरी से मिलने गये, जो पिकासो की मित्र थीं | वह लोग बातें कर ही रहे थे कि पिकासो वहाँ आ गये | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि 'वह बहुत ही रोमांचकारी क्षण था |'
सूज़ा का जन्म गोवा में हुआ था, लेकिन जल्दी ही उनकी माँ उन्हें लेकर मुंबई आ गई थीं | सूज़ा के जन्म के कुछ ही बाद उनके पिता का देहांत मात्र 24 साल की उम्र में ही हो गया था | सूज़ा की बड़ी बहन की भी मृत्यु डेढ़ - दो साल की उम्र में ही हो गई थी | बचपन में सूज़ा को भी चेचक हो गई थी, जिसके कारण उनकी माँ को उन्हें लेकर डर हुआ और नतीजतन वह उन्हें लेकर मुंबई आ गईं | मुंबई में उनकी माँ को किसी चर्च से कपड़े सिलने का काम मिला था, जो कि वह बहुत बारीकी से करती थीं | सिले हुए कपड़े को वह कशीदाकारी से सजाती भी थीं | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि वह भी अपनी पेंटिंग्स को उसी तरह सजाने की कोशिश करते हैं | सूज़ा की माँ उन्हें संत बनाना चाहती थीं क्योंकि बचपन में उन्हें जब चेचक हुई थी तब उनकी माँ ने सेंट फ्रांसिस जेवियर के सामने उन्हें संत बनाने की प्रतिज्ञा की थी | लेकिन सूज़ा ने माँ की इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली | दरअसल धर्म को लेकर सूज़ा में कभी कोई दिलचस्पी पैदा ही नहीं हो सकी, क्योंकि उन्होंने हमेशा ही चीजों को व स्थितियों को तार्किक तरीके से समझने का प्रयास किया |
सूज़ा को चित्र बनाना तो बचपन से ही पसंद था और इसीलिए बड़े होकर उन्होंने कला की विधिवत शिक्षा लेने का फैसला किया | इसके लिये उन्होंने जे जे कॉलेज ऑफ ऑर्ट में दाखिला लिया, पर वह वहाँ अपना कोर्स पूरा नहीं कर सके | असल में, कॉलेज में लगे इंग्लैंड के झंडे यूनियन जैक को उतार कर गांधी जी का झंडा लहराने के काम में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ बढ़चढ़ कर भाग लिया था, जिसके चलते उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया था | तब वह गोवा लौट गये थे और वहाँ लैंडस्केप पेंट करने लगे | गोवा में बनाई पेंटिंग्स की उन्होंने मुंबई में प्रदर्शनी की और पहली ही प्रदर्शनी में उनकी एक पेंटिग बड़ौदा म्यूजियम ने खरीदी थी | गोवा में उनका मारिया फिनरारो नाम की लड़की से परिचय हुआ | उन्हें बाद में पता चला कि उसने अपनी सारी तनख्वाह उनकी पेंटिंग्स खरीदने में खर्च कर दी है | मारिया से ही बाद में उनकी शादी हुई | सूज़ा ने कुछ लिखा - लिखाया भी है, लेकिन लिखना उनके लिये कभी भी पेंट करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा | पेंट करना उनका मन का काम रहा | इसके चक्कर में उन्होंने नौकरी नहीं की | जब साधन कम रहे, तब भी नहीं | साधन कम रहे, तब भी उन्होंने लेकिन पेंटिंग करना नहीं छोड़ा |
सूज़ा ने प्रायः आकृतिमूलक काम ही किया है | उनका साफ़ कहना रहा कि उनके लिये आकृति ही सब कुछ है | इसलिए वह जब भी कोई पेंटिंग बनाते हैं तो वह किसी आकृति की ही होती है, जिसकी एक निश्चित रूपरेखा हो | उनका मानना और कहना रहा कि एक महान पेंटिंग वही है जिसमें आकृति एक निश्चित रूपरेखा में चित्रित की गई हो | दो आयामी चित्रों में आप त्रिआयामी चीजों को उतार सकते हैं और साथ ही उनमें रंग भर सकते हैं, पर इसके लिये यह जरूरी है कि पेंटिंग का एक निश्चित आधार हो | सूज़ा का व्यवहार खासा आक्रामक था और अपने समकालीन चित्रकारों के साथ उनकी खासी गर्मागर्मी रहती थी | उनका यह 'व्यवहार' उनके चित्रों में भी दिखता रहा है, और इसी 'व्यवहार' के कारण उनके चित्रों में 'बोल्डनेस' रही है - रूप के स्तर पर भी और विषय के स्तर पर भी | इसी के चलते उन पर यह आरोप भी लगा कि उनमें एक प्रकार का परावर्शन और डिस्टार्शन है | 'बोल्डनेस' के कारण ही उन्हें मूर्तिभंजक चित्रकार के रूप में भी देखा / पहचाना गया है |
सूज़ा पहले भारतीय चित्रकार हैं जिन्हें पश्चिम के कला प्रेमियों, प्रशंसकों, प्रेक्षकों व व्यापारियों ने मान्यता दी और एक कलाकार के रूप में जिनका लोहा माना | प्रसिद्व दार्शनिक व चिंतक एज़रा पाउंड ने घोषित किया था कि 'सूज़ा महान है और वह इस बात को जानता भी है |' सूज़ा 1949 में लंदन चले गये थे | हालाँकि वह वहाँ गये थे घूमने - फिरने के लिहाज से और म्यूजियम आदि देखने ताकि उनका ज्ञान और सौंदर्यशास्त्र की समझ बढ़ सके | लेकिन वहाँ पहुँच कर उनका पेंटिग करने में ऐसा मन लगा कि फिर उन्होंने वहीं बस जाने का फैसला कर लिया | उनकी पत्नी मारिया ने वहाँ नौकरी की और उन्होंने पेंटिंग | 1955 में उन्होंने लंदन में पहली प्रदर्शनी की | उस समय तक हालाँकि वह वहाँ खासे जाने - पहचाने हो गये थे | प्रदर्शनी के बाद तो वह वहाँ पूरी तरह स्थापित हो गये | महान कलाकार हेनरी मूर और ग्रैम सदरलैंड वहाँ उनके खास दोस्तों में थे | 1956 में सूज़ा स्टॉकहोम गये | वहाँ वह अकबर पदमसी और हैदर रज़ा के साथ मैडम कुटूरी से मिलने गये, जो पिकासो की मित्र थीं | वह लोग बातें कर ही रहे थे कि पिकासो वहाँ आ गये | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि 'वह बहुत ही रोमांचकारी क्षण था |'
सूज़ा का जन्म गोवा में हुआ था, लेकिन जल्दी ही उनकी माँ उन्हें लेकर मुंबई आ गई थीं | सूज़ा के जन्म के कुछ ही बाद उनके पिता का देहांत मात्र 24 साल की उम्र में ही हो गया था | सूज़ा की बड़ी बहन की भी मृत्यु डेढ़ - दो साल की उम्र में ही हो गई थी | बचपन में सूज़ा को भी चेचक हो गई थी, जिसके कारण उनकी माँ को उन्हें लेकर डर हुआ और नतीजतन वह उन्हें लेकर मुंबई आ गईं | मुंबई में उनकी माँ को किसी चर्च से कपड़े सिलने का काम मिला था, जो कि वह बहुत बारीकी से करती थीं | सिले हुए कपड़े को वह कशीदाकारी से सजाती भी थीं | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि वह भी अपनी पेंटिंग्स को उसी तरह सजाने की कोशिश करते हैं | सूज़ा की माँ उन्हें संत बनाना चाहती थीं क्योंकि बचपन में उन्हें जब चेचक हुई थी तब उनकी माँ ने सेंट फ्रांसिस जेवियर के सामने उन्हें संत बनाने की प्रतिज्ञा की थी | लेकिन सूज़ा ने माँ की इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली | दरअसल धर्म को लेकर सूज़ा में कभी कोई दिलचस्पी पैदा ही नहीं हो सकी, क्योंकि उन्होंने हमेशा ही चीजों को व स्थितियों को तार्किक तरीके से समझने का प्रयास किया |
सूज़ा को चित्र बनाना तो बचपन से ही पसंद था और इसीलिए बड़े होकर उन्होंने कला की विधिवत शिक्षा लेने का फैसला किया | इसके लिये उन्होंने जे जे कॉलेज ऑफ ऑर्ट में दाखिला लिया, पर वह वहाँ अपना कोर्स पूरा नहीं कर सके | असल में, कॉलेज में लगे इंग्लैंड के झंडे यूनियन जैक को उतार कर गांधी जी का झंडा लहराने के काम में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ बढ़चढ़ कर भाग लिया था, जिसके चलते उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया था | तब वह गोवा लौट गये थे और वहाँ लैंडस्केप पेंट करने लगे | गोवा में बनाई पेंटिंग्स की उन्होंने मुंबई में प्रदर्शनी की और पहली ही प्रदर्शनी में उनकी एक पेंटिग बड़ौदा म्यूजियम ने खरीदी थी | गोवा में उनका मारिया फिनरारो नाम की लड़की से परिचय हुआ | उन्हें बाद में पता चला कि उसने अपनी सारी तनख्वाह उनकी पेंटिंग्स खरीदने में खर्च कर दी है | मारिया से ही बाद में उनकी शादी हुई | सूज़ा ने कुछ लिखा - लिखाया भी है, लेकिन लिखना उनके लिये कभी भी पेंट करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा | पेंट करना उनका मन का काम रहा | इसके चक्कर में उन्होंने नौकरी नहीं की | जब साधन कम रहे, तब भी नहीं | साधन कम रहे, तब भी उन्होंने लेकिन पेंटिंग करना नहीं छोड़ा |
सूज़ा ने प्रायः आकृतिमूलक काम ही किया है | उनका साफ़ कहना रहा कि उनके लिये आकृति ही सब कुछ है | इसलिए वह जब भी कोई पेंटिंग बनाते हैं तो वह किसी आकृति की ही होती है, जिसकी एक निश्चित रूपरेखा हो | उनका मानना और कहना रहा कि एक महान पेंटिंग वही है जिसमें आकृति एक निश्चित रूपरेखा में चित्रित की गई हो | दो आयामी चित्रों में आप त्रिआयामी चीजों को उतार सकते हैं और साथ ही उनमें रंग भर सकते हैं, पर इसके लिये यह जरूरी है कि पेंटिंग का एक निश्चित आधार हो | सूज़ा का व्यवहार खासा आक्रामक था और अपने समकालीन चित्रकारों के साथ उनकी खासी गर्मागर्मी रहती थी | उनका यह 'व्यवहार' उनके चित्रों में भी दिखता रहा है, और इसी 'व्यवहार' के कारण उनके चित्रों में 'बोल्डनेस' रही है - रूप के स्तर पर भी और विषय के स्तर पर भी | इसी के चलते उन पर यह आरोप भी लगा कि उनमें एक प्रकार का परावर्शन और डिस्टार्शन है | 'बोल्डनेस' के कारण ही उन्हें मूर्तिभंजक चित्रकार के रूप में भी देखा / पहचाना गया है |
Wednesday, March 31, 2010
सिद्वार्थ ने 'डेकोरेटिव काऊ' के जरिये जीवन और समाज की विविधतापूर्ण परिघटनाओं को समग्रता में तथा संवेदना के स्तर पर अभिव्यक्त किया है
रेलिगेअर आर्ट्स डॉट आई ने 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों की एक बड़ी प्रदर्शनी आयोजित की है | सिद्वार्थ भारतीय समकालीन कला के चित्रकारों में एक अलग तरह की पहचान रखते हैं | समकालीनता को परंपरा के साथ जोड़ कर देखने और दिखाने का काम करने का प्रयास यूं तो बहुत लोगों ने किया है, पर वास्तव में उसे कर सकने में जो थोड़े से लोग ही सफल हो सके हैं, उनमें सिद्वार्थ भी एक हैं | सिद्वार्थ ने जैसे एक ज़िद की तरह अपने चित्रों को पूरने में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया है | बचपन के असर से दुनिया भर का चक्कर लगा लेने के बाद भी वह जैसे मुक्त नहीं हो पाए हैं | सिद्वार्थ ने अपनी माँ को काम करते देखते हुए मिट्टियों के रंगों की, फूलों के रंगों की, नीलडली व हिरमिची और रंग-बिरंगे पत्थरों को पीस/घोंट कर तैयार किए गये रंगों की जिस चमक को जाना/पहचाना था, वह चमक जैसे आज भी उनमें बसी हुई है | उनकी माँ रंगों से सजे पेपरमैशी के बर्तन बनाती थीं | सिद्वार्थ को अपने बचपन में कारीगरी और रंगों का कैसा वातावरण मिला, इसे दिनभर के कामकाज से थके-मांदे घर लौटे उनके पिता की शिकायतभरी चुहल से जाना जा सकता है जो वह अक्सर करते थे - 'ओ कोई रोटी-पानी भी बना है घर में या फिर बेल-बूटा, चित्र-कढ़ाई ही है |' इसके साथ ही वह यह कहना भी नहीं चूकते थे 'हैं तो सुंदर पर भूख भी तो लगती है न |' गाँव के स्कूल में जहाँ मास्टर को यह तो पता था कि चित्र बनाने का काम सुंदर दिखने वाले ब्रशों से और चमकदार रंगों से सफेद कागज पर होता है, सिद्वार्थ को यह उलाहना अक्सर सुनना पड़ता था - 'यह तू कौन मिट्टियों से चित्र बनाता है |' माता-पिता की साझी मेहनत-मजदूरी पर पलते चार बेटे व दो बेटियों के परिवार के सदस्य के रूप में सिद्वार्थ के लिये हो सकता है कि उस समय मिट्टियों से चित्र बनाना मजबूरी भी रहा हो, लेकिन मिट्टियों में उन्होंने अपनी रचनात्मकता के जो स्त्रोत देखे / पाए थे, उन्हीं मिट्टियों पर भरोसा बनाये रखने के चलते सिद्वार्थ की एक भिन्न पहचान बनी है
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'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से प्रदर्शित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों ने उनकी भिन्न पहचान के रंग को वास्तव में और गाढ़ा बनाने/करने का ही काम किया है | गाय (काउ) तो सिर्फ बहाना है | उसे डेकोरेट करके सिद्वार्थ ने जीवन और समाज की विविधतापूर्ण परिघटनाओं - चाहें वह आर्थिक हों, सामाजिक हों, धार्मिक हों, स्वार्थी हों या मनमौजी हों - को समग्रता में अभिव्यक्त किया है; तथा संवेदना के स्तर पर गहरे अर्थों को पहचानने के लिये प्रेरित करने से लेकर उनसे जुड़ने के लिये जैसे उकसाने का काम किया है | विषय-वस्तु के नजरिये से देखें, तो सिद्वार्थ ने प्रायः जानी-पहचानी स्थितियों को लेकर ही अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों को रचा है और एक बड़ा खतरा उठाया है | दरअसल, हमारे यहाँ समकालीन कला में जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर चित्र रचना करने की कोई बहुत सार्थक परंपरा ही नहीं है | यह खासा खतरेभरा और चुनौतीभरा भी माना जाता है | जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर आधारित चित्र रचना में दर्शक/प्रेक्षक (और ख़ुद कलाकार) के लिये भी यह खतरा तो रहता ही है कि उनकी नज़र चित्र के रचनात्मक 'तथ्यों' को पहचानने की बजाये चीजों व स्थितियों की 'आकार रेखाओं' को ही चित्र में ढूँढ़ने लग जाती हैं | सिद्वार्थ ने अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों में इस खतरे को पास भी नहीं फटकने दिया है तो यह उनका रचनात्मक कौशल तो है ही, साथ ही संवेदनात्मक यथार्थपरकता पर यह उनकी पकड़ का सुबूत भी है |
सिद्वार्थ की सक्रियता को देख/जान कर भी समझा जा सकता है कि उनके लिये जैसे कला और जीवन एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं | उन्होंने ख़ुद भी कहा है 'सदा से मुझे याद है कि चित्रों के साथ-साथ ही जिया हूँ | इसके बिना रहने का कोई अवसर हुआ ही नहीं |' सिद्वार्थ ने यूं तो चंडीगढ़ कॉलिज ऑफ ऑर्ट से डिप्लोमा किया है, लेकिन कला की मूल भावना व बारीकियों को पहचानने तथा पकड़ने के हुनर को पाने के लिये उन्होंने दूसरे ठिकानों पर ज्यादा भरोसा किया | सिद्वार्थ ने घर-गाँव तो छोड़ा था शोभा सिंह से पोट्रेट सीखने के लिये, पर फिर उन्होंने तिब्बतन कला थानग्का सीखने का निश्चय किया और इसके लिये धर्मशाला स्थित एक बौद्व मठ में उन्होंने छह साल बिताये | इसके अलावा, सिद्वार्थ ने मधुबनी पेंटिंग भी सीखी और कश्मीरी पेपरमैश क्राफ्ट कला सीखने के लिये पुश्तैनी शिल्पकारों की शागिर्दी भी की | स्वीडन में उन्होंने ग्लास ब्लो का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया | कोई भी चकित हो सकता है और जानने का इच्छुक भी कि कला में सिद्वार्थ आखिर क्या-क्या जानना-सीखना और करना चाहते हैं ? उनकी सक्रियता किसी को भी हैरान कर सकती है | उन्होंने देश के विभिन्न शहरों के साथ-साथ ब्रिटेन, अमेरिका, स्वीडन आदि देशों में बाईस एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा करीब सवा सौ समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | देश-विदेश में सिद्वार्थ को अपनी कला के प्रशंसक तो मिले ही हैं, वह पुरुस्कृत और सम्मानित भी खूब हुए हैं | ब्रिटिश काउंसिल से अवार्ड पाने वाले गिने-चुने भारतीय चित्रकारों में सिद्वार्थ का नाम भी है | सिद्वार्थ ने सिर्फ पेंटिंग्स ही नहीं की है; उन्होंने मूर्तिशिल्प भी बनाये हैं तथा भारत की कला, यहाँ के शिल्प और यहाँ के मंदिरों पर पंद्रह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाई हैं | ख़ुद उनके काम और उनकी कला पर भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनी है | 'इन सर्च ऑफ कलर - ए पेंटर सिद्वार्थ' शीर्षक से उक्त फिल्म का निर्माण कला फिल्मों के मशहूर निर्माता के बिक्रम सिंह ने किया है |
रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों की प्रदर्शनी को देखते हुए मैं लगातार उस कहानी को याद करता रहा जो सिद्वार्थ ने करीब पांच साल पहले नागपुर में आयोजित हुए एक कला शिविर में 'संदर्भ और स्मृतियाँ' विषय पर दिये अपने व्याख्यान में सुनाई थी : 'एक शिष्य गुरु के पास गया और कहने लगा गुरु जी मुझे चित्र कला सिखा दो | गुरु ने कहा पहले मूर्तिकला सीख कर आओ | शिष्य मूर्तिकला के गुरु के पास गया | कहने लगा - मुझे मूर्तिकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे, पहले नृत्य कला सीख कर आओ | वह नृत्यकला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे नृत्यकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे राजन, पहले तुम संगीत कला सीख कर आओ | वह संगीत कला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे संगीत सिखा दो | गुरु ने कहा - क्या तुम्हें शब्दों का ज्ञान है ? शब्दों की ध्वनियों को तुमने कभी ध्यान से सुना है ? तुम्हें अपनी मातृभाषा आती है ? ऐसा करो, ध्वनियों को सुनने तुम जंगल में चले जाओ | वहाँ बहते झरने को सुनो, जो सदियों से बह रहा है | बहुत सारी स्मृतियाँ लिये हुए आता है, जाता है, फिर वापस आता है | कल-कल नाद करते हुए बह रहा है, जाओ उसको सुनो, फिर आना |' 'डेकोरेटिव काऊ' देखते हुए और देख कर लौट आने के बाद भी मैं गायों से जुड़ी यादों व अनुभवों के घेरे से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ | रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित प्रदर्शनी में सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों को देखना मेरे लिये सचमुच में एक विलक्षण अनुभव रहा | किसी और गैलरी में उनके इन चित्रों व मूर्तिशिल्पों को शायद ही इतने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता होता | इसका श्रेय सीमा बावा तथा दीर्घा के कर्ताधर्ताओं को भी है | सीमा बावा ने इस प्रदर्शनी को क्यूरेट किया है और वास्तव में उन्होंने अपना काम खासी दक्षता के साथ किया है |

'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से प्रदर्शित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों ने उनकी भिन्न पहचान के रंग को वास्तव में और गाढ़ा बनाने/करने का ही काम किया है | गाय (काउ) तो सिर्फ बहाना है | उसे डेकोरेट करके सिद्वार्थ ने जीवन और समाज की विविधतापूर्ण परिघटनाओं - चाहें वह आर्थिक हों, सामाजिक हों, धार्मिक हों, स्वार्थी हों या मनमौजी हों - को समग्रता में अभिव्यक्त किया है; तथा संवेदना के स्तर पर गहरे अर्थों को पहचानने के लिये प्रेरित करने से लेकर उनसे जुड़ने के लिये जैसे उकसाने का काम किया है | विषय-वस्तु के नजरिये से देखें, तो सिद्वार्थ ने प्रायः जानी-पहचानी स्थितियों को लेकर ही अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों को रचा है और एक बड़ा खतरा उठाया है | दरअसल, हमारे यहाँ समकालीन कला में जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर चित्र रचना करने की कोई बहुत सार्थक परंपरा ही नहीं है | यह खासा खतरेभरा और चुनौतीभरा भी माना जाता है | जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर आधारित चित्र रचना में दर्शक/प्रेक्षक (और ख़ुद कलाकार) के लिये भी यह खतरा तो रहता ही है कि उनकी नज़र चित्र के रचनात्मक 'तथ्यों' को पहचानने की बजाये चीजों व स्थितियों की 'आकार रेखाओं' को ही चित्र में ढूँढ़ने लग जाती हैं | सिद्वार्थ ने अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों में इस खतरे को पास भी नहीं फटकने दिया है तो यह उनका रचनात्मक कौशल तो है ही, साथ ही संवेदनात्मक यथार्थपरकता पर यह उनकी पकड़ का सुबूत भी है |
सिद्वार्थ की सक्रियता को देख/जान कर भी समझा जा सकता है कि उनके लिये जैसे कला और जीवन एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं | उन्होंने ख़ुद भी कहा है 'सदा से मुझे याद है कि चित्रों के साथ-साथ ही जिया हूँ | इसके बिना रहने का कोई अवसर हुआ ही नहीं |' सिद्वार्थ ने यूं तो चंडीगढ़ कॉलिज ऑफ ऑर्ट से डिप्लोमा किया है, लेकिन कला की मूल भावना व बारीकियों को पहचानने तथा पकड़ने के हुनर को पाने के लिये उन्होंने दूसरे ठिकानों पर ज्यादा भरोसा किया | सिद्वार्थ ने घर-गाँव तो छोड़ा था शोभा सिंह से पोट्रेट सीखने के लिये, पर फिर उन्होंने तिब्बतन कला थानग्का सीखने का निश्चय किया और इसके लिये धर्मशाला स्थित एक बौद्व मठ में उन्होंने छह साल बिताये | इसके अलावा, सिद्वार्थ ने मधुबनी पेंटिंग भी सीखी और कश्मीरी पेपरमैश क्राफ्ट कला सीखने के लिये पुश्तैनी शिल्पकारों की शागिर्दी भी की | स्वीडन में उन्होंने ग्लास ब्लो का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया | कोई भी चकित हो सकता है और जानने का इच्छुक भी कि कला में सिद्वार्थ आखिर क्या-क्या जानना-सीखना और करना चाहते हैं ? उनकी सक्रियता किसी को भी हैरान कर सकती है | उन्होंने देश के विभिन्न शहरों के साथ-साथ ब्रिटेन, अमेरिका, स्वीडन आदि देशों में बाईस एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा करीब सवा सौ समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | देश-विदेश में सिद्वार्थ को अपनी कला के प्रशंसक तो मिले ही हैं, वह पुरुस्कृत और सम्मानित भी खूब हुए हैं | ब्रिटिश काउंसिल से अवार्ड पाने वाले गिने-चुने भारतीय चित्रकारों में सिद्वार्थ का नाम भी है | सिद्वार्थ ने सिर्फ पेंटिंग्स ही नहीं की है; उन्होंने मूर्तिशिल्प भी बनाये हैं तथा भारत की कला, यहाँ के शिल्प और यहाँ के मंदिरों पर पंद्रह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाई हैं | ख़ुद उनके काम और उनकी कला पर भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनी है | 'इन सर्च ऑफ कलर - ए पेंटर सिद्वार्थ' शीर्षक से उक्त फिल्म का निर्माण कला फिल्मों के मशहूर निर्माता के बिक्रम सिंह ने किया है |
रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों की प्रदर्शनी को देखते हुए मैं लगातार उस कहानी को याद करता रहा जो सिद्वार्थ ने करीब पांच साल पहले नागपुर में आयोजित हुए एक कला शिविर में 'संदर्भ और स्मृतियाँ' विषय पर दिये अपने व्याख्यान में सुनाई थी : 'एक शिष्य गुरु के पास गया और कहने लगा गुरु जी मुझे चित्र कला सिखा दो | गुरु ने कहा पहले मूर्तिकला सीख कर आओ | शिष्य मूर्तिकला के गुरु के पास गया | कहने लगा - मुझे मूर्तिकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे, पहले नृत्य कला सीख कर आओ | वह नृत्यकला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे नृत्यकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे राजन, पहले तुम संगीत कला सीख कर आओ | वह संगीत कला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे संगीत सिखा दो | गुरु ने कहा - क्या तुम्हें शब्दों का ज्ञान है ? शब्दों की ध्वनियों को तुमने कभी ध्यान से सुना है ? तुम्हें अपनी मातृभाषा आती है ? ऐसा करो, ध्वनियों को सुनने तुम जंगल में चले जाओ | वहाँ बहते झरने को सुनो, जो सदियों से बह रहा है | बहुत सारी स्मृतियाँ लिये हुए आता है, जाता है, फिर वापस आता है | कल-कल नाद करते हुए बह रहा है, जाओ उसको सुनो, फिर आना |' 'डेकोरेटिव काऊ' देखते हुए और देख कर लौट आने के बाद भी मैं गायों से जुड़ी यादों व अनुभवों के घेरे से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ | रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित प्रदर्शनी में सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों को देखना मेरे लिये सचमुच में एक विलक्षण अनुभव रहा | किसी और गैलरी में उनके इन चित्रों व मूर्तिशिल्पों को शायद ही इतने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता होता | इसका श्रेय सीमा बावा तथा दीर्घा के कर्ताधर्ताओं को भी है | सीमा बावा ने इस प्रदर्शनी को क्यूरेट किया है और वास्तव में उन्होंने अपना काम खासी दक्षता के साथ किया है |
Saturday, March 27, 2010
परमिंदर सिंह संधू के मूर्तिशिल्पों में जीवन की लय और ताल थिरकती नज़र आती है
परमिंदर सिंह संधू के मूर्तिशिल्पों को लेकर मैं पिछले कुछ समय से लगातार एक दिलचस्प अनुभव का साक्षी और सहभागी बना हुआ हूँ | पिछले कुछ समय में, जब भी मूर्तिशिल्प कला को लेकर किसी से कोई बात हुई और या मूर्तिशिल्प कला को लेकर हो रही बातचीत का मैं हिस्सा बना तो अधिकतर मौकों पर मैंने दिल्ली के कलाकारों व कला प्रेक्षकों को परमिंदर के मूर्तिशिल्पों को लोगों को याद करते तथा रेखांकित करते हुए पाया है | परमिंदर एक युवा शिल्पकार हैं और अभी तक उनकी सक्रियता का केंद्र मौटे तौर पर चंडीगढ़ ही है | कहने को तो उन्होंने दीमापुर ( नागालैंड ), शांतिनिकेतन ( पश्चिम बंगाल ), नागपुर ( महाराष्ट्र ), उदयपुर ( राजस्थान ), मुरथल ( हरियाणा ), भोपाल ( मध्य प्रदेश ) और नई दिल्ली में किसी समूह प्रदर्शनी या किसी प्रतियोगिता या किसी कैम्प में शामिल होने के बहाने से अपने काम को प्रदर्शित किया है; लेकिन बड़े स्तर पर अपने काम को प्रदर्शित कर पाने का अवसर उन्हें अभी भी प्राप्त करना है | नई दिल्ली में पिछले वर्ष जून में उन्होंने चंडीगढ़ के बाहर अपने शिल्पों की पहली एकल प्रदर्शनी जरूर की थी | मैंने अपने जिस अनुभव का ज़िक्र किया है, वह शायद आठ महीने पहले हुई उसी प्रदर्शनी का असर है | मुहावरे का सहारा लेँ तो कह सकते हैं कि परमिंदर के मूर्तिशिल्पों का जादू लोगों के जैसे सिर चढ़ कर बोल रहा है | उक्त प्रदर्शनी को देख सकने का सौभाग्य मुझे भी मिला था और परमिंदर के मूर्तिशिल्पों के साथ-साथ परमिंदर की काम करने की जिजीविषा ने मुझे भी प्रभावित किया था | मैंने अपने जिस अनुभव का ज़िक्र किया है, उससे मुझे स्वाभाविक रूप से यह भी पता चला ही है कि परमिंदर के काम से एक मैं ही प्रभावित नहीं हुआ था, बल्कि और कई लोगों को भी परमिंदर के काम ने छुआ है |
सबसे पहले तो, ललित कला में सबसे दुस्साध्य और कठिन माध्यम के रूप में पहचाने जाने वाले मूर्तिशिल्प कला में किसी युवा कलाकर का काम करना ही लोगों को चौंकाता है | स्वाभाविक रूप से इस माध्यम में वही कलाकार काम करना पसंद करते हैं जो कठिन परिश्रम करने को तैयार होते हैं, तथाकथित सफलता पाने की जल्दी में नहीं होते हैं और कलाकार के रूप में कला-बाजार की उपेक्षा का खतरा उठाने से घबराते नहीं हैं | अमृतसर जिले की तरन तारन तहसील के गाँव छुटाला में वर्ष 1977 के फरवरी माह की तेरह तारिख को जन्मे परमिंदर सिंह संधू के काम को देखने वालों ने तो लेकिन यह भी रेखांकित किया है कि उन्होंने मूर्तिकला जैसे अधिक मेहनत और समय की मांग करने वाले दृश्यगत भाषा-माध्यम को सिर्फ चुना ही नहीं, बल्कि पूरी तल्लीनता और शिद्दत के साथ उसे निभाया भी है | परमिंदर की कलाकृतियों में मानवा-कारों के साथ-साथ बीज व सर्प रूपाकारों और अमूर्त तत्त्वों को साफ़ देखा / पहचाना जा सकता है | उनकी प्रायः सभी कृतियों में 'एरॉटिक' तत्त्वों का समावेश है, लेकिन उनमें सौंदर्य की सूक्ष्मता तथा संयम दोनों को सहज ही महसूस किया जा सकता है | परमिंदर की कलाकृतियाँ माँसल ऐंद्रिकता से भरपूर हैं और जिनमें व्यक्त हुई परिष्कृत कला-चेतना की बारीकियाँ पहली बार में ही आकर्षित भी करती हैं और प्रभावित भी | परमिंदर के मूर्तिशिल्पों के रूपाकारों के सृजन में ऐंद्रिकता की कोमलता व रेखाओं की उदात्त मितव्ययिता का समावेश है, जिससे इन रूपाकारों के स्पर्श-संवेदन और रहस्यमय गत्यात्मकता में विलक्षणता प्रकट होती है | परमिंदर ने विविधतापूर्ण रूपाकारों की जो रचना की है, उनमें व्यक्त होने वाले अप्रत्याशित मोड़, उठान, प्रक्षेपन, दरारें और ढलानें आदि - सभी तत्त्व अपनी सामूहिकता में जिस कलात्मक लय का सृजन करते हैं, उसके चलते कलाकृति की सौंदर्यात्मक एकात्मकता में और भी श्रीवृद्वि हो जाती है |
मूर्तिशिल्प सृजन की अपनी सशक्त भाषा को विकसित कर चुके परमिंदर के टैक्सचर की विशेषता है कलाकृतियों में शिलाओं की रूक्षता और स्निग्धता के परस्पर विपरीत गुणों के बीच विद्यमान सृजनात्मक तथा दृश्यमूलक समन्वय स्थापित करना | मूर्तिशिल्प के उत्तेजक और कहीं-कहीं चमत्कारिक से लगते उठाव-गिराव उनकी वर्णात्मक लय को दर्शक के लिये और अधिक आकर्षक बना देते हैं, क्योंकि उनमें जीवन की लय और ताल थिरकती नज़र आती है | खासी मेहनत और निरंतर संलग्नता के भरोसे अपनी प्रतिभा को व्यापक रूप देते हुए परमिंदर ने वास्तव में मूर्तिकला में पंजाब की भागीदारी व उपस्थिति को और गाढ़ा बनाने का ही काम किया है, तथा धनराज भगत, अमरनाथ सहगल, वेद नैयर, बलबीर सिंह कट्ट, हरभजन संधू, शिव सिंह, ए सी सागर, अमरीक सिंह, अवतार सिंह आदि प्रमुख शिल्पकारों की परंपरा को और समृद्व करते जाने के प्रति आश्वस्त करने का ही काम किया है |
परमिंदर सिंह संधू को पिछले ही वर्ष पंजाब ललित कला अकादमी ने सम्मानित किया है | पंजाब ललित कला अकादमी में सम्मानित होने का यह उनका दूसरा मौका था | इससे पहले, वर्ष 2004 में भी परमिंदर पंजाब ललित कला अकादमी के वार्षिक आयोजन में सम्मानित हो चुके थे | वर्ष 2008 में नागपुर में आयोजित हुई बाइसवीं अखिल भारतीय कला प्रतियोगिता में वह पुरुस्कृत हुए | उससे पिछले वर्ष, यानि वर्ष 2007 में चंडीगढ़ ललित कला अकादमी की वार्षिक कला प्रदर्शनी में परमिंदर का काम पुरुस्कृत हुआ था |
उससे भी पहले, वर्ष 2006 में आईफैक्स की 78 वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी में परमिंदर सिंह को सम्मानित करने के लिये चुना गया था और वह दिल्ली में संपन्न हुए एक भव्य कार्यक्रम में कई कलाकारों के बीच सम्मानित हुए थे | आईफैक्स में सम्मानित होने का भी परमिंदर का यह दूसरा अवसर था | इससे पहले हालाँकि वह दिल्ली में नहीं, बल्कि चंडीगढ़ में सम्मानित हुए थे | चंडीगढ़ में वर्ष 2002 में आयोजित हुई आईफैक्स की राज्यस्तरीय प्रदर्शनी में उन्हें सम्मानित करने के लिये चुना गया था | ज़ाहिर तौर पर, परमिंदर सिंह संधू के काम को संस्थाओं की ओर से भी और लोगों से भी व्यापक सराहना मिली है | वास्तव में यह सराहना ही उनकी प्रतिभा और रचनात्मक क्षमता की गवाह भी है और सुबूत भी |
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