Thursday, February 11, 2010

नंदा गुप्ता ने केनवस पर जो किया है, उसमें हम अपनी संवेदना और समझ को बार-बार कुछ टोहता हुआ पाते हैं

नंदा गुप्ता के चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी 12 फरवरी से नई दिल्ली की गीता आर्ट गैलरी में शुरू हो रही है | इस प्रदर्शनी को 28 फरवरी तक देखा जा सकेगा | नंदा इससे पहले एक समूह प्रदर्शनी में अपने चित्रों को प्रदर्शित कर चुकी हैं, तथा कुछेक आर्ट गैलरीज के संग्रहों में उनका काम उपलब्ध है | इस कारण से कह / मान सकते हैं कि नंदा के काम से कला प्रेक्षकों का पहले से जो परिचय है, उनकी एकल प्रदर्शनी उस परिचय को और प्रगाढ़ बनाने का ही काम करेगी | नंदा के काम से जो लोग परिचित हैं और उनके काम को लगातार देखते रहे हैं उन्होंने, पीछे हुई समूह प्रदर्शनी में प्रदर्शित उनके काम को देख कर महसूस किया कि उनके काम में न सिर्फ विषय-वस्तु बदल रही है बल्कि वह समकालीन कला के मुहावरे को पकड़ने की कोशिश भी कर रहा है | इसीलिए नंदा के चित्रों की एकल प्रदर्शनी को लेकर उनके काम से परिचित लोगों के बीच खासी उत्सुकता है |
नंदा गुप्ता ने अपनी कला-यात्रा लैंडस्केप चित्रों से की थी | उन्होंने मानवीय आकृतियों - खासकर चेहरों और चेहरों पर आते-जाते भावों को चित्रित करने में भी खासी दिलचस्पी ली थी | दरअसल प्रकृति ने उन्हें एक व्यक्ति के रूप में भी और एक चित्रकार के रूप में भी गहरे तक प्रभावित किया है; तथा प्रकृति की जादूगरी व उसकी रहस्यमयता ने उन्हें हैरान भी किया और सवालों में उलझाया भी | इस उलझन ने उन्हें अहसास कराया कि जैसे उनसे कुछ छूट रहा है | उलझन से बाहर निकलने और छूट रहे को पहचानने व उसे बनाये रखने तथा वापस पाने की कोशिश में नंदा आध्यात्म व साधना की शरण में गईं तो जैसे उन्होंने अपने आप को और ज्यादा प्रखरता से जानना व पहचानना शुरू किया | सोच में और जीवन में आ रहे इस बदलाव का असर उनकी पेंटिंग्स पर पड़ना स्वाभाविक ही था और वह पड़ा भी | लैंडस्केप, मानवीय आकृतियों व वास्तविक जीवन की वस्तुओं को अपनी पेंटिंग्स का विषय बना रहीं नंदा ने अचानक से अमूर्त रूपाकारों की तरफ अपना कदम बढ़ा लिया |
नंदा गुप्ता की कला-यात्रा को आगे बढ़ाने और एक सुनिश्चित दिशा देने में कविता जायसवाल तथा सुनंदो बसु की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही | नंदा ने कला की औपचारिक शिक्षा का पहला पाठ कविता जायसवाल से सीखा, जिन्होंने उन्हें कला की बुनियादी बारीकियों से परिचित कराने के साथ-साथ प्रयोगों के लिये व केनवस पर खुलकर 'खेलने' के लिये प्रेरित किया | बाद में, नंदा ने जब सुनंदो बसु के 'स्कूल' में कला प्रशिक्षण पाना शुरू किया तो सुनंदो ने उन्हें केनवस पर किए जाने वाले 'खेल' को व्यवस्थित रूप देने की सीख दी | सुनंदो की उस बात की तो जैसे उन्होंने गांठ बांध ली कि उन्हें इतना काम करना है, काम में ऐसा ध्यान लगाना है कि वह सपने भी देखें तो पेंटिंग के ही देखें | इस का जो नतीजा निकला वह यह कि नंदा के काम की अपनी एक विशिष्ट शैली बन गई और उनकी पेंटिंग्स का मूल स्वभाव पहचाना जाने लगा |
नंदा गुप्ता के नये काम को देख कर लगता है कि उनकी कला में रंग जैसे अपनी एक निश्चित भूमिका बनाना चाहते हैं | उनके प्रायः प्रत्येक चित्र में एक रंग का ही प्रभुत्व मिलेगा, जिसके साथ और एक या दो रंग इस तरह प्रस्तुत किए गये हैं कि दोनों या तीनों आपस में पूरक न बन कर, एक दूसरे को और अधिक उभारें | नंदा के चित्रों को अमूर्त दृश्यचित्र भी कह सकते हैं, क्योंकि उनमें जाने-पहचाने या परिचित लगने जैसे कोई आकार या आकृति नहीं हैं | चित्रों में एक विस्तार, फैलाव भी है जिसे विभिन्न रंगों से, या एक ही रंग की गहरी, घनी या हल्की वर्णच्छ्टा से विभाजित किया है | इस विभाजन में कहीं गहराई बनती है तो कहीं विस्तार आकार लेता है | केनवस पर नंदा ने जो किया है, उसमें हम एक 'अचरज' भी ढूंढ या पहचान सकते हैं | यह अचरज सहज अचरज है | कुछ उसी तरह का जो कुछ चीजें अपने में कई तरह के चित्र विचित्र आकार छिपाये होने के भ्रम से देती हैं; और जिनमें हम अपनी संवेदना और समझ को बार-बार कुछ टोहता हुआ पाते हैं | उनके चित्रों में लेकिन सिर्फ अचरज ही नहीं है | नंदा ने रंगों व रंग-छायाओं का जो एक सुमेल प्रस्तुत किया है, उसमें हम एक उड़ान, मिथक, विश्वास, स्वप्न और कल्पना के कई संदर्भ बनते भी देख सकते हैं |
नंदा गुप्ता ने जिस तेजी से अपनी कला का परिष्कार किया है, उससे कला के प्रति उनकी ललक का और सीखने की उनकी सामर्थ्य का सुबूत भी मिलता है | कला के प्रति अपनी ललक तथा सीखने की अपनी ज़िद को यदि वह लगातार बनाये रख सकीं, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में उनके और उम्दा व परिष्कृत चित्रों को देखने का सुख व सौभाग्य मिलेगा |

Tuesday, February 9, 2010

कोलकाता को देखते हुए, बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव रहा

कोलकाता पहुंचा तो जरूरी कामों की फेहरिस्त में बिकास भट्टाचार्य का काम देखना भी दर्ज था, जिसे मैं किसी भी हालत में पूरा कर लेना चाहता था | बिकास भट्टाचार्य का काम यूं तो मैंने दिल्ली में कई बार देखा है, लेकिन एक बार किसी ने कहा था कि कोलकाता में घूमते / रहते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है | कुछेक वर्ष पहले, यह सुन कर मैंने जैसे ठान लिया था कि जब भी कोलकाता जाऊँगा पहला काम बिकास भट्टाचार्य की पेंटिंग्स देखने का करूंगा | मैंने ठान तो लिया था लेकिन बात आई-गई सी हो गई थी, क्योंकि कोलकाता जाने का कोई मौका ही नहीं मिला | लेकिन लगता है कि जो ठाना था, वह गहरे घर कर गया था; क्योंकि रोटरी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में कोलकाता जाने का प्रोग्राम जब सचमुच बना और कार्यक्रम के स्थानीय आयोजक ने पूछा कि कोलकाता में मैं कहाँ कहाँ जाना चाहूँगा, तो जैसे बेसाख्ता मेरे मुंह से यही निकला की मैं वहाँ बिकास भट्टाचार्य का काम जरूर देखना चाहूँगा | मैं यह सचमुच जानना / समझना चाहता था कि जिस किसी ने भी यह कहा था कि - कोलकाता में घूमते / रहते हुए या कहें कि कोलकाता को देखते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है, वह यूं ही कहा था या उस कहे हुए के कोई खास मतलब भी थे |
बिकास भट्टाचार्य के काम और उनके चित्रकार बनने की कथा ने मुझे यूं भी खासा उद्वेलित किया है | उन्होंने अपनी कला को जिस तरह सामाजिक यथार्थ से जोड़ा और उनके आसपास की ज़िन्दगी व दिन-प्रतिदिन के अनुभव, संवेग, विचार उनके आत्म प्रत्यक्षीकृत हो उनके चित्रों में आकार ग्रहण करते रहे; और जो देश, काल व समाज के यथार्थ के साथ उसकी विसंगतियों व विद्रूपताओं को उजागर करने का जरिया बने - वह बिकास भट्टाचार्य के विजन तथा अपने विजन को केनवस पर ट्रांसफर करने की उनकी कलात्मक सामर्थ्य को प्रकट करती है | उन्होंने यह विजन और सामर्थ्य कहाँ से पाया - इसे जानने / समझने में उनके जीवन के शुरुआती दिनों के उनके संघर्ष की कथा काफी मदद करती है |
बिकास भट्टाचार्य का जन्म सीलन, गंदगी और अभावों से भरी एक मलिन बस्ती के एक बहुत ही साधारण से परिवार में हुआ था | उनके जन्म लेने के कुछ ही समय बाद उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया था | परिवार चलाने के लिये उनकी विधवा माँ को मजदूरी करनी पड़ी | उससे भी मुश्किल से ही गुजारा हो पाता | इसी कारण, बिकास को होश सँभालते-सँभालते ही मजदूरी करने के लिये मजबूर होना पड़ा | बिकास ने बचपन तो जैसे 'देखा' ही नहीं | गरीबी, अभाव, मजबूरी और संघर्ष के बीच ही बिकास ने न सिर्फ होश संभाला, बल्कि अपने जीवन की दिशा भी तय की; और यहीं उनमें कला के बीज पड़े / पनपे | पच्चीस वर्ष की उम्र में बिकास ने अपने चित्रों की जो पहली एकल प्रदर्शनी की, उसने कोलकाता के लोगों के बीच इस कारण से धूम मचाई थी क्योंकि उनके चित्रों में उपेक्षित व शनै-शनै मरते हुए कोलकाता की सच्चाई को उदघाटित किया गया था |
बिकास भट्टाचार्य ने अपनी पहली ही प्रदर्शनी से कोलकाता के कला जगत में अपनी धाक जमा ली थी, जिसके बाद फिर उनके लिये राष्ट्रिय व अंतर्राष्ट्रीय ख्याति बहुत दूर नहीं रह गई थी | बिकास अभी तीस वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी पेंटिंग्स को पेरिस की द्विवार्षिकी में स्थान मिला | इकतीस वर्ष की उम्र में उन्हें ललित कला अकादमी का पुरस्कार मिला | देश-विदेश की अनेकों प्रतिष्ठित प्रदर्शनियों और आर्ट गैलरियों में उनके चित्रों को सम्मानपूर्ण तरीके से स्थान मिला और उन्हें ढेर सारा मान व प्रशंसा | इसके बावजूद बिकास इस सम्मान और प्रशंसा से नहीं, बल्कि अपने काम से पहचाने गये हैं | शहरी बंगाली मध्य वर्ग की मानसिकता को, उसके सामाजिक परिवेश को, उसकी विसंगति व विद्रूपता को जिस गहरी समझ व दोटूक ढंग से बिकास भट्टाचार्य ने केनवस पर चित्रित किया है - वह अपने आप में कला प्रेक्षकों के लिये एक अनोखा अनुभव रहा; और उनके इसी अनोखे अनुभव ने बिकास भट्टाचार्य को बड़ा कलाकार तो बनाया ही, उन्हें खास पहचान भी दी |
बिकास भट्टाचार्य की इस पहचान ने पेंटिंग्स के उद्देश्यपरक होने की बात को स्वीकृति व मान दिलाने का काम भी किया | अन्यथा इस बात को हेय रूप में देखा / माना जाता था | अपने इस काम के जरिये बिकास ने समकालीन कला को एक नई भाषा और एक नया व्याकरण दिया | बिकास भट्टाचार्य का विश्वास चूंकि यथार्थवादी चित्रण में रहा है, इसी कारण से उनके बनाये चित्र प्रायः फोटो जैसे दिखते हैं; हालाँकि कथ्य के अनुरूप उन्होंने अक्सर चित्रों में की आकृतियों का विरूपीकरण भी किया है | उनका मानना और कहना रहा है - जिसे उन्होंने अपने चित्रों में अभिव्यक्त भी किया है - कि चित्र को दर्शक के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए, न कि उसे चित्रकार के विचारों को संप्रेषित करने का काम | बिकास भट्टाचार्य ने कोलकाता में अभाव, गरीबी व मजबूरी के शिकार लोगों के बीच अपना बचपन व किशोरावस्था बिताते हुए जीवन-जगत की जिस सच्चाई को पहचाना उसे ही कलात्मक संवेदना के साथ केनवस पर उकेरा | यही कारण रहा कि उनकी कला ने दर्शक के साथ विश्वास का रिश्ता बनाया | कोलकाता में घूमते / रहते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखते हुए इस रिश्ते की व्यापकता व गहराई की और-और परतें मैंने खुलती हुई पाईं तथा पहचानीं |

Monday, January 25, 2010

कृष्ण खन्ना के काम का सिंहावलोकन

सैफरन आर्ट द्वारा ललित कला अकादमी की कला दीर्घा में इन दिनों कृष्ण खन्ना की रेट्रोस्पेक्टिव - सिंहावलोकन प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है, जिसमें उनके पिछले पचास वर्षों में किए गये कामों में से एक सौ बीस कामों को प्रदर्शित किया गया है | प्रदर्शनी में एक विस्तृत कैटलॉग भी उपलब्ध है | प्रदर्शनी कृष्ण खन्ना के कुल कामकाज की एक व्यापक झलक पेश करती है | पिछले पचास वर्षों की अपनी रचना-यात्रा में कृष्ण खन्ना की कला ने कई मोड़ और पड़ाव देखे हैं | इसी का नतीजा है कि रचना-विधियों और चित्र-भाषा के मामले में हमें उनके काम में खासी विविधता देखने को मिलती है | कृष्ण खन्ना ने अपने आस-पास की 'दुनिया' से अपनी पेंटिंग्स के लिये विषय चुने | मुंबई में उन्होंने औद्योगिक मजदूरों की मुश्किलों व पीड़ाओं को करीब से देखा और उन्हें अपनी पेंटिंग्स में व्यक्त किया | श्रमिक स्त्री-पुरूषों की तकलीफों व मुश्किल ज़िन्दगी को कृष्ण खन्ना ने जिस संलग्नता व संवेदनशीलता से अपनी पेंटिंग्स में जगह दी, वैसा दूसरा उदाहरण शायद ही कोई मिलेगा |
कृष्ण खन्ना यूँ तो फिगरेटिव पेंटर हैं - और अपनी कलात्मक ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में अमूर्तन पर उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया - लेकिन रेखाओं की अनुपस्थिति के कारण तथा रंगों के फार्म की तरह इस्तेमाल होने के चलते उनकी कई पेंटिंग्स अमूर्त काम की श्रेणी में आ जाती हैं | इस तरह का प्रयोग कृष्ण खन्ना के साथ-साथ पचास से साठ के दशक में उभरे दूसरे कलाकारों जैसे रामकुमार, मकबूल फ़िदा हुसैन, केजी सुब्रह्मण्यम आदि की भी खासियत रही है | इनकी बहुत सी पेंटिंग्स 'दिखती' तो फिगरेटिव हैं, लेकिन अपने रंग पैटर्न के कारण वह आती अमूर्तन की श्रेणी में हैं | ऐसा संभवतः इस कारण हुआ होगा कि पेंट करते समय इन कलाकारों ने विषय की तुलना में पेंटिंग्स को लेकर ज्यादा चिंता की होगी | टैक्सचर, रंगों के टोन तथा फोर्स पर बल देने को लेकर सभी में अपने-अपने ढंग की विशेषता है, सबने अपने-अपने ढंग से इन तत्त्वों का प्रयोग किया | कई तरह की समानताएं होते हुए भी सभी की अपनी-अपनी स्टाइल बनी, उनके चित्रों में उनकी स्टाइल को अभिव्यक्त होते हुए देखा गया और उनकी स्टाइल ही फिर उनकी पहचान बनी | कृष्ण खन्ना की पेंटिंग्स में - जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है - रंग ही फार्म है जो अंतर्वस्तु के बहुत अनुकूल प्रयुक्त हुआ है | कृष्ण खन्ना देश के उन शीर्षस्थ कलाकारों में हैं जिन्होंने समकालीन भारतीय कला को न केवल समृद्ध किया, बल्कि तमाम युवा कलाकारों को प्रेरित व दिशा-निर्देशित भी किया | कृष्ण खन्ना प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के अत्यंत सक्रिय सदस्य रहे और अपनी सक्रियता के भरोसे ही उन्होंने ग्रुप की कलात्मक व वैचारिक गतिविधियों में अग्रणी भूमिका निभाई थी | जे. स्वामीनाथन उनके अच्छे मित्र थे लेकिन इसके बावजूद उनके साथ के अपने वैचारिक मतभेदों को प्रकट करने में उन्होंने कभी हिचक नहीं दिखाई | स्वामीनाथन दरअसल समकालीन भारतीय कला को भारतीय सौंदर्यशास्त्र, उसमें भी खासतौर से जनजातीय कला से विकसित करने के पक्ष में थे, जबकि कृष्ण खन्ना समकालीन कला को पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र की बजाये अंतर्राष्ट्रीय बनाने के पक्ष में थे | स्वामीनाथन इतिहास को मृत मानते थे, जबकि कृष्ण खन्ना व्यक्ति की ऐतिहासिकता को न सिर्फ स्वीकार करते थे बल्कि उसे महत्त्वपूर्ण भी मानते रहे | अमूर्तता की हदों तक पहुँचते-पहुँचते हुए भी अपनी पेंटिंग्स में कृष्ण खन्ना ने कभी आकृतियों को विलीन नहीं होने दिया; उन्होंने कभी शून्य में जाने की जाने की कोशिश नहीं की | अपनी पेंटिंग्स में, व्यक्ति की ऐतिहासिकता और ऐहिकता को पहचानने की कोशिश करते हुए उसे, उन्होंने लगातार व्यक्त करने का काम ही   किया | यही वह 'जगह' है - जहाँ उनकी राह स्वामीनाथन की राह से अलग होती है |
स्वामीनाथन और कृष्ण खन्ना के बीच के वैचारिक संघर्ष को दक्षिणपंथी व वामपंथी संघर्ष के रूप में भी देखा/पहचाना गया | हालाँकि कृष्ण खन्ना प्रचलित अर्थों में कभी भी वामपंथी नहीं रहे | स्वामीनाथन के साथ चले वैचारिक संघर्षों के बावजूद, कृष्ण खन्ना ने 'बैंड वाला' शीर्षक से सामाजिक यथार्थवादी विषयों पर जो
चित्र-श्रृंखला तैयार की थी, उसका कैटलॉग उन्होंने स्वामीनाथन से ही लिखवाया और स्वामीनाथन ने ही उसे लिखा |
कृष्ण खन्ना का जन्म 1925 में ल्यालपुर, पाकिस्तान का जो शहर अब फैसलाबाद के नाम से जाना जाता है, में हुआ था |  जन्म के बाद लेकिन उनका परिवार लाहौर आ गया था, जहाँ वह पले/बढ़े | ग्रेजुएशन हालाँकि उन्होंने इंग्लैंड के इम्पीरियल सर्विस कॉलिज से 1940 में किया था | देश के विभाजन के बाद कृष्ण खन्ना का परिवार शिमला आ गया था | भारत में कृष्ण खन्ना ने ग्रिंडलेज़ बैंक में नौकरी प्राप्त की और उन्हें मुंबई में पोस्टिंग मिली | मुंबई में ग्रिंडलेज़ बैंक की नौकरी करते हुए ही कृष्ण खन्ना प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संपर्क में आये; और उसी संपर्क के साथ उन्होंने कला जगत में प्रवेश किया | कला से उनका परिचय हालाँकि लाहौर  में हो गया था, जहाँ उन्होंने मेयो कॉलिज ऑफ ऑर्ट में शाम की कक्षाओं में दाखिला लिया था | कला की औपचारिक शिक्षा के नाम पर उन्होंने यही कुछ किया था | मुंबई में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संपर्क में आने के बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं     देखा | देश में नहीं, विदेशों में भी कृष्ण खन्ना ने न सिर्फ अपनी कला को प्रदर्शित किया, बल्कि तमाम प्रशंसा व पुरस्कार भी प्राप्त किए | देश में भी उनकी कला  को खास सम्मान मिला | 1996 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया | मजेदार संयोग है कि कृष्ण खन्ना की पहली पेंटिंग टाटा समूह के टाटा इंस्टीट्यूट के डॉक्टर होमी भाभा ने खरीदी थी, तो सैफरन आर्ट द्वारा आयोजित इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी को संभव बनाने में भी टाटा समूह की टाटा एआईजी जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड का सहयोग रहा   है |
कृष्ण खन्ना के काम की सिंहावलोकन प्रदर्शनी को देखना अपने आप में एक खास अनुभव है | समकालीन कला में दिलचस्पी रखने वालों को यह प्रदर्शनी अवश्य ही देखना चाहिए | ललित कला अकादमी की दीर्घाओं में इस प्रदर्शनी को पांच फरवरी तक देखा जा सकता है | 

Sunday, December 27, 2009

अकबर पदमसी के चित्रों का भारतीय समकालीन कला के संदर्भ में एक विशेष महत्त्व है


अकबर पदमसी की नई पेंटिंग्स अगले माह मुंबई की पुंदोले आर्ट गैलरी में प्रदर्शित होंगी | इसी दौरान 'वर्क इन लेंग्वेज' शीर्षक किताब का विमोचन भी होगा, जिसमें अकबर पदमसी की कामकाज का व्यापक मूल्यांकन व विश्लेषण किया गया है | 1928 में जन्में अकबर पदमसी एक अत्यंत सक्रिय कलाकार हैं और कला के बाज़ार में भी लगातार अपनी धाक बनाये हुए हैं | पिछले दिनों ही उनकी पेंटिंग्स अंतर्राष्ट्रीय कला बाज़ार में ऊंची कीमतों पर बिकी हैं | अपने काम, अपनी सक्रियता और कला बाज़ार की हलचलों के केंद्र में रहने के कारण अकबर पदमसी कला प्रेक्षकों के बीच निरंतर चर्चा में रहते हैं; और उनका नया या पुराना काम देखने को मिलता रहता है | अकबर ने अपने जीवन के बहुत से वर्ष पेरिस में बिताएं हैं | यह तथ्य उनकी कृतियों को देखते हुए जैसे हर बार ध्यान में रखने लायक है | क्योंकि कला क्षेत्र में जिसे 'पेरिस स्कूल' कह कर पुकारा / पहचाना जाता है, उसकी चित्र-भाषा से एक संबंध अकबर की कृतियों का जुड़ता है | अकबर पदमसी के आरंभिक आकृतिमूलक काम हों या बाद के लैंडस्केप हों - दोनों में ही हम जो चित्रभाषा देखते हैं वह आधुनिक यूरोपीय चित्रभाषा की उपलब्धियों से दूर तक जुड़ी हुई हैं | गौर करने की बात यह है कि यह चित्रभाषा अकबर की कृतियों में अनायास नहीं चली आई थी - और वह सतही नहीं है | उसे अकबर पदमसी ने अपने चित्रफलक पर 'अर्जित' भी किया है |
अर्जित करने की इस प्रक्रिया में दो बातें हुईं : अकबर की चित्रभाषा तत्कालीन पेरिस-कलादृश्य के अधीन निरंतर एक मँजाव ढूंढती रहीं और इस बात का प्रयत्न भी करती रहीं कि वह उनके अपने 'स्वभाव' को भी बरकरार रखे | अपने लिये आदर्श मानी गई चित्रभाषा में किस हद तक उनका स्वभाव विलीन हुआ, इसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है, लेकिन इस में संदेह नहीं कि अकबर पदमसी ने उस काल में कई सधी हुई कृतियों की रचना की | रसोई के कुछ उपकरणों को लेकर किया गया उनका 'अचल जीवन' ऐसी ही एक कृति है, जिसमें उपकरणों पर आरोपित दमकते रंगों और पृष्ठभूमि के रंगों के एक अंतर्निर्भर संबंध से निर्जीव वस्तुओं ने अपने 'मौन' को एक विश्वसनीय रंगभाषा में तोड़ा | उनके शुरू के आकृतिमूलक काम में भी जैसे एक सधी हुई देह लय (आकारिक रेखाओं) और टेक्सरयुक्त सघन रंगों में पहले हम एक स्तब्धता के निकट पहुँचते हैं, और फिर धीरे धीरे यह स्तब्धता टूटने लगती है |
अकबर पदमसी के अमूर्त से लैंडस्केप में - जिनमें अधिकतर में अर्द्वचंद्राकार और रंग चाकू से लगाये गये विविध लेकिन मद्विमवर्णी थक्के ही हैं - भी हम एक विश्रांति और इसी विश्रांति से धीरे धीरे प्रकट होती एक सुगबुगाहट देखते हैं | इस तरह से कहना भले ही चित्रों को शाब्दिक अर्थ में लेना लगे - हम देखते हैं कि उनकी कला का मुख्य स्वभाव विश्रांति और चुप्पी का ही है - ऐसी विश्रांति और चुप्पी जो अपनी शर्तों पर ही अपने को क्रमशः तोड़ेगी : तोड़ेगी, लेकिन एक निश्चित सीमा तक ही | अकबर पदमसी के स्याह सफेद रेखांकनों के चेहरों में एक ओर जलीय सी उपस्थिति है - दूसरी ओर एक आकारिक दृढ़ता भी | स्याह सफेद के अनुपात बहुत सधे हुए हैं | जाहिर है कि इनके पीछे सधे हाथों का एक लंबा अनुभव है, वरना इन रेखांकनों में चित्रभाषा और मर्म - दोनों के ही सरलीकरण कम नहीं हैं | चीनी-जापानी जलीय अंकन के कुछ प्रभाव भी उनके काम में दिखते हैं | उनके चित्रों में व्यक्त होता सा दिखता कथ्य - उनके बिंबों की भंगिमा - अक्सर चित्रभाषा की एक कठिन अनुशासनी सर्वोपरिता में अपने को विलीन और अभिव्यक्त करती है | अकबर पदमसी ने अपने कई चित्रों में चटख रंगों का प्रयोग भी किया है जो भारतीय रंग स्वभाव के अधिक निकट है | अकबर पदमसी के चित्रों का रचनाकाल करीब करीब छह दशकों तक फैला हुआ है, इसलिए भारतीय समकालीन कला के संदर्भ में उनके काम का एक विशेष महत्त्व है | उनके काम को देखना-समझना जैसे एक बड़े दौर को देखने-समझने की तरह है|
अकबर पदमसी के कुछेक चित्रों को आप यहाँ भी देख सकते हैं :










































































Sunday, December 6, 2009

शालू जैन को 'अंतरंग अकादमी सम्मान'

अंतरंग अकादमी ने चित्रकला के लिये वर्ष 2009 के 'अंतरंग अकादमी सम्मान' के लिये शालू जैन का चयन किया है | यह घोषणा करते हुए अकादमी की प्रबंध कार्यकारिणी के अध्यक्ष डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि सम्मान के लिये योग्य युवा प्रतिभा का चयन करने खातिर युवा सर्जनात्मकता का आकलन करने की प्रक्रिया में, नए प्रयोगों और सूक्ष्म दृष्टि से अपने काम में एक नयापन और विविधता लाने में शालू जैन की निरंतर सक्रियता और सक्षमता को रेखांकित करते हुए तीन सदस्यों की कमेटी ने एकमत से यह फैसला किया है | सम्मान के लिये योग्यता को लेकर उन्होंने कहा कि अकादमी की प्रबंध कार्यकारिणी के सदस्यों ने देखने और समझने की कोशिश की कि कौन से पत्थर तैरने वाले और पार पहुँचने वाले हैं | साथ ही यह भी सोचा गया कि यह सम्मान ऐसा न हो जो पहुंचे हुए लोगों की पहुँच की प्राप्ति स्वीकार करता हो | डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि कमेटी के सदस्यों को तथा उन्हें यह बात तो बाद में पता चली कि शालू जैन ने कला का संस्कार और परिष्कार बड़ौत नाम के उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में प्राप्त किया है | इस जानकारी को डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने शालू जैन के चयन के फैसले के संदर्भ में उल्लेखनीय माना | उनका कहना रहा कि शालू जैन की कला के
स्त्रोत बड़ौत जैसी छोटी जगह में हैं, यह एक कलाकार के रूप में उनके लिये महत्त्व की बात है या नहीं, यह तो वे जानें; अपने फैसले के संदर्भ में यह हमारे लिये अवश्य ही महत्त्व की है | डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल व्यास ने बताया कि दिसंबर के अंतिम सप्ताह में लखनऊ में होने वाले अकादमी के वार्षिक कला उत्सव में शालू जैन का सम्मान किया जायेगा |
शालू जैन ने पिछले छह - सात वर्षों में विभिन्न जगहों पर अलग - अलग संस्थाओं द्वारा आयोजित समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | पिछले तीन वर्षों के दौरान दो बार - पहली बार नई दिल्ली के प्रेस क्लब में तथा दूसरी बार लोकायत मुल्कराज आनंद सेंटर में उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनियां भी की हैं | बीते दिनों की उनकी कला - सक्रियता को यहाँ याद करने की प्रासंगिकता इसलिए है क्योंकि उनकी यही सक्रियता स्वयं में इस बात का एक प्रमाण है कि चित्रकला से उनका गहरा लगाव है; और इस लगाव के चलते ही शालू जैन ने युवा चित्रकारों में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है | शालू जैन के चित्रों में चित्रता-गुण भरपूर हैं और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो देखते ही बनती है और जो अपने विश्लेषण के लिये हमें तरह तरह से उकसाती भी है | उनके चित्र बार-बार देखे गये से प्रतीत होते हैं; इसके बावजूद हम उन्हें दोबारा देखने के लिये प्रेरित होते हैं, और फिर पाते हैं कि जैसे उन्हें पहली बार देख रहे हों |
शालू जैन के चित्रों में प्रकृति के और प्रकृति-स्थितियों के कायांतरित आकार हैं, हमारी आँखों के सामने जैसे नाटकीय घटनाएँ घट रही होती हैं; रूपाकार ऊर्जावान गतियों से सजीव होने लगते हैं - कुछ इस तरह जैसे पहले ऐसे दृश्य कभी देखे न हों, हालाँकि हम उनसे अच्छी तरह परिचित होते हैं | यह शालू के काम की विलक्षण अभिव्यक्ति है, उनकी स्वप्नसृष्टि की अभिव्यक्ति | उनकी चेतना की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति जैसे लगते हैं उनकी पेंटिंग्स में के परिदृश्य | एक चित्र की रचनाप्रक्रिया के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया कि एक दिन वह अपने घर की छत पर थीं कि गरजते बादलों को उन्होंने कुछ इस तरह उमड़ते-घुमड़ते हुए देखा, कि तुरंत एक पेंटिंग पर काम करने के लिये वह प्रेरित हुईं | बादलों का उमड़ना-घुमड़ना उन्होंने हालाँकि पहले भी कई-कई बार देखा है, लेकिन उस दिन यदि उनमें उस परिदृश्य को पेंट करने की 'इच्छा' पैदा हुई, तो यह 'चेतना की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति' जैसा मामला ही है, जिसमें 'स्वप्नसृष्टि की अभिव्यक्ति' के तत्त्वों को भी देखा/पहचाना जा सकता है | उक्त घटना उन्होंने बताई तो पता चला; वह नहीं भी बतातीं, तो उनकी पेंटिंग्स तो यह 'बता' ही रही थीं | उनकी पेंटिंग्स में धरातल तथा पुंज (मास) का एक सादा-सा ज्यामितीय संतुलन बनता दिखता है, जो कलाकार के मन में पनपने वाली सुघट्य भावनाओं का परिचय देता है | अपनी पेंटिंग्स में के आकारों को शालू ने कहीं कहीं छायाकृति (सिलुएट) की तरह भी प्रस्तुत किया है |
शालू जैन पिछले काफी समय से प्रकृति के कई उपकरणों को लेकर ही काम कर रही हैं और इन उपकरणों की एक 'समानता' के बावजूद हर बार उनके काम में हमें एक और गहराई दीख पड़ती है | एक्रिलिक रंगों से बने उनके चित्र प्रकृति के दृश्यजगत का ही मानों एक निचोड़ हैं | उनके चित्रों में जैसे उनका दृश्यमान ही परिवर्तित हो गया है - प्रकृति उपकरण किसी कोण विशेष से ही न देखे जाकर, एक आत्मसात आंतरिक और बाह्य स्पेस (और रंगों) के रूप में देखे गए हैं | उनके चित्र-देश ने उन तमाम हलचलों, गतियों, संकेतों और मर्मों को अपने में बुन और समाहित कर लिया है जो ऋतुएं और मानस, एक अंतर्संबंध में घटित करते हैं; और जिनमें स्मृतियाँ रहती हैं, रंग-अनुभव रहते हैं, प्रकाश और छायाएं रहती हैं, शारीरिक-ऐंद्रिक उद्वेग रहते हैं, और जो कुल मिलाकर एक आत्मिक अनुभव में बदल जाते हैं | इस तरह प्रकृति उपकरण शालू जैन की कला में अभिन्न रूप से जुड़ गए हैं | इस तरह की 'अभिन्नता' किसी कलाकार में एक दुहराव में भी बदल सकती थी; लेकिन शालू जैन के यहाँ वह दुहराव में न बदल कर हर बार एक नए विस्मय में बदल जाती है | हम हर बार अनुभव करते हैं कि हम ने जो पहले देखा था, वह इससे मिलता जुलता तो था, लेकिन ठीक ऐसा ही नहीं था | लेकिन ठीक वैसा न लगने में 'ही' उन की कला की सार्थकता नहीं है - वह तो इसी बात में है कि वह हर बार अपने को सार्थक करती  है |
'अंतरंग अकादमी सम्मान' के लिये शालू जैन का चुना जाना वास्तव में उनकी कला की इसी सार्थकता का सम्मान है |

नई दिल्ली के लोकायत मुल्कराज आनंद सेंटर में 'इन द लेप ऑफ नेचर' शीर्षक से कुछ समय पहले आयोजित हुई शालू जैन की एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित कुछ चित्र आप यहाँ देख सकते हैं :










































 










Sunday, November 22, 2009

पिकासो की वर्षों पहले कही गई बात कि 'चित्र अपनी अनुश्रुति पर ही जीवित रहेगा, किसी और चीज पर नहीं' को मैंने अपने सामने सच होते हुए पाया


अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौट रहे लोगों से खचाखच भरे ट्रेन के डिब्बे में अपने दोस्तों को जब मैंने बातों ही बातों में यूं ही बताया कि आज मैंने पिकासो के चित्रों की प्रदर्शनी देखने का काम किया है, तो मैंने महसूस किया की मेरे दोस्तों ने मुझे कुछ खास तवज्जो देना शुरू कर दिया | अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौटने की जल्दी में ट्रेन में साथ बैठे उन दोस्तों को मैं चूंकि अच्छी तरह जानता हूँ; मैं जानता हूँ कि कला उनके लिये एक फालतू किस्म का काम है; मैं जानता हूँ कि उन्हें पिकासो तो क्या किसी भी कलाकार के बारे में या उनके काम के बारे में जानने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही होगी; मैं जानता हूँ कि कला में मेरी दिलचस्पी उनके लिये अक्सर मजाक का विषय रही है - लेकिन अब नज़ारा बदला हुआ था | मैंने पिकासो की पेंटिंग्स देखी हैं, मैं पिकासो के बारे में कुछ जानता हूँ, मुझे पहले से पता था कि पिकासो की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी दिल्ली में कहाँ लगी है और मैं आज आज खास तौर से उस प्रदर्शनी को देखने गया - इस कारण मैं ट्रेन के सफ़र के अपने उन दोस्तों के बीच खास बन गया था जिनके मन में मैंने कला के प्रति कभी कोई सम्मान या दिलचस्पी नहीं देखी थी |
अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके घर लौट रहे ट्रेन के मेरे उन दोस्तों को पिकासो के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि पिकासो एक बड़ा चित्रकार था, किसी ने कहा कि - है | पिकासो के बारे में इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था | अपनी जानकारी में उन्होंने पिकासो की कोई पेंटिंग नहीं देखी | कभी किसी अख़बार या पत्रिका में देखी हो तो उन्हें पता नहीं, याद नहीं | पिकासो की पेंटिंग्स देखने को लेकर उन्होंने कोई इच्छा या उत्सुकता भी नहीं प्रकट की | मैंने उन्हें बताया भी कि जिस प्रदर्शनी को मैं देख कर आ रहा हूँ, वह अभी पंद्रह दिन और लगी रहेगी; लेकिन किसी ने भी ऐसी इच्छा भी प्रकट नहीं की कि वह देखने जाने की कोशिश करेगा | इसके बावजूद, मैंने महसूस किया कि जैसे उन्हें इस बात पर गर्व था कि उनके साथ बैठे उनके एक दोस्त ने पिकासो की पेंटिंग्स देखी हैं और जो पिकासो के बारे में जानता है | उनका इस बात पर गर्व करना और मुझे खास तवज्जो देना मुझे हैरान कर रहा था | अपने दोस्तों का यह व्यवहार और उनका रवैया मुझे बराबर पहेली जैसा लग रहा था और मैं वास्तव में चकित था |
मैं चकित था यह देख कर कि स्पेन के एक छोटे से गाँव मालागा में 1881 में जन्में पाब्लो पिकासो में ऐसा आखिर क्या था कि हजारों मील दूर भारत के एक छोटे शहर के, अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौट रहे लोग उनके नाम के आगे इस हद तक नतमस्तक थे कि मुझे खास समझ रहे थे क्योंकि मैं पिकासो के बारे में उनसे ज्यादा जानता हूँ | यह ठीक है कि हमारे समय के कलाकारों में पिकासो की एक विशिष्ट जगह है - एक ऐसी जगह जिसे उन्हें सख्त नापसंद करने वाला भी नहीं छीन सकता है | यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमारे समय में कोई दूसरा पिकासो नहीं पैदा हो सकता | पिकासो जैसे जीवन और उसके मिथक और जादुई ताकत को पाना आसान नहीं है - बल्कि असंभव ही है | पिकासो ने हमेशा मनुष्य और उसके जीवन को अपने चित्रों में उकेरने का काम किया है | मातृत्व, नट, मदारी, गरीब, फुटपाथवासी, अंधे भिखारी आदि उनकी कला के विषय रहे | दुःख और वेदना को दृश्य-भाषा के माध्यम से कैसे उकेरा जा सकता है पिकासो से ज्यादा शायद ही कोई जानता होगा | मनुष्य जीवन की छोटी से छोटी सच्चाई को पहचानने; मनुष्य जीवन की गहरी समझ रखने तथा उसके प्रति अतुलनीय जुड़ाव व आस्था रखने और उसे प्रकट करने उस ही पिकासो को पिकासो बनाया है, और उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी | लेकिन इस बात से उन लोगों को भला क्या मतलब जो अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौटने की जल्दी में हैं और जो कला को एक फालतू का काम मानते और समझते हैं |
मैं वास्तव में हैरान था और मेरे लिये यह एक पहेली सी बन गई थी कि आखिर क्या चीज है जो उन्हें पिकासो के नाम के आगे नतमस्तक किये दे रही है | इस पहेली को हल करने में पिकासो ने ही मेरी मदद की |  मैंने कहीं पढ़ा है कि पिकासो ने एक बार कहा था : 'जितना रंग टिकता है उतना ही कागज भी, और अंततः दोनों साथ-साथ आयुग्रस्त होते हैं | और बाद में कोई चित्र तो देख नहीं पायेगा, सब चित्र की अनुश्रुति या दंतकथा ही सुनेंगे - वह अनुश्रुति या दंतकथा जो चित्र ने बनाई होगी | तब फिर, चित्र रहे या न रहे कोई फर्क नहीं पड़ता | आगे चलकर चित्र को 'रक्षित' करने की कोशिश की जायेगी; लेकिन चित्र अपनी अनुश्रुति पर ही जीवित रहेगा, किसी और चीज पर नहीं |' पिकासो संभवतः यही कह रहे थे कि अगर किन्हीं कलाकृतियों में प्राण फूंके गए होंगे तो वे कलाकृतियां समाप्त हो जाने पर भी हमारी स्मृति में मंडराती रहेंगी | अचंभा नहीं कि, पिकासो अपनी ही कृतियों को मान दे कर एक अनुश्रुति ( लीजेंड ) बना रहे थे | पिकासो ने एक बार यह भी कहा था : 'जरूरी बात यह है कि हमारे समय के कमजोर मनोबल के बीच उत्साह पैदा किया जाये | कितने लोगों ने सचमुच होमर को पढ़ा होगा ? लेकिन समूची दुनिया होमर की बात करती है | इस तरह से एक होमेरी अनुश्रुति बनती है | इस अर्थ में एक अनुश्रुति मूल्यवान उत्तेजना पैदा करती है | उत्साह ही वह चीज है जिसकी हमें और युवा पीढ़ी को, सबसे अधिक ज़रूरत है |
कितना सही थे पिकासो | कोई उनके चित्रों को कभी देख पाए या नहीं, कोई उन्हें या उनके चित्रों को जानें या नहीं, लेकिन उनके और उनकी कला के प्रति सम्मान और उत्साह व्यक्त करने के मामले में पीछे नहीं रहेगा | अपनी अपनी नौकरियों का एक और दिन पूरा करके थके-हारे घर लौटने की जल्दी में ट्रेन में बैठे अपने दोस्तों को पिकासो के नाम के आगे नतमस्तक देख कर मुझे पिकासो की कही हुई बात का जैसे जीता-जागता सुबूत मिल रहा था |

Wednesday, November 11, 2009

अक्षय आमेरिया का रचना-संसार एक नैतिक अन्वेषण है

अक्षय आमेरिया की कुछेक कलाकृतियों को महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'बहुवचन' के पृष्टों पर छपा देखा तो मुझे वर्षों पहले नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में आयोजित हुई उनके चित्रों की एकल प्रदर्शनी की याद हो आई | अब जब मैंने खोज खबर ली तो पाया कि यह वर्ष 2000 की बात थी | अक्षय के चित्रों में प्रकट होने वाले काव्यात्मक बोध के कारण उनके चित्रों की जो छाप मेरे मन पर पड़ी थी, मैंने पाया कि वह जस की तस बनी हुई है | मुझे भी इसका पता हालाँकि तब चला जब मैं 'बहुवचन' के पृष्टों को पीछे की तरफ से पलट रहा था और उसमें छपे चित्रों को देखते ही मैंने जैसे अपने आप से कहा कि यह तो अक्षय आमेरिया के चित्र हैं, और फिर मैंने अपने आप से कही गई बात को सच पाया |

अक्षय आमेरिया के काम को तो मैंने देखा ही है, उन्हें काम करते हुए देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है | आइफैक्स द्वारा आयोजित एक कैम्प में भाग लेने अक्षय दिल्ली आये थे, तब कुछ समय उनके साथ बिताने का अवसर मुझे मिला था | अक्षय बात भी करते जा रहे थे और कागज पर रचने का काम भी करते जा रहे थे | बात को और काम को एकसाथ साधने की उनकी क्षमता ने उस समय भी मुझे चकित किया था, और आज भी उस दृश्य को याद करता हूँ तो चकित होता हूँ | 'बहुवचन' में अक्षय की कलाकृतियों के जो चित्र छपे हैं वह पिछले दिनों मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी में 'इनरस्केप्स' शीर्षक से प्रदर्शित हुए हैं |

 अक्षय आमेरिया ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपने चित्रों के सामने पहली बार खड़े हो रहे दर्शकों को विस्मित और अपने चित्रों से पहले से परिचित दर्शकों को लगातार आश्वस्त बनाए रखा है, अपने 'विषयों' को लेकर भी और तकनीक को लेकर भी | अपने कौशल के साथ अक्षय हमें एक ऐसे स्पेस में ले जाते हैं, जहाँ प्रत्येक रेखा और बिंदु आविष्ट है, अपनी स्वयं की ज़िन्दगी प्राप्त कर रहा है - लगातार परिवर्तित होता हुआ | वैयक्तिक रूप से प्रत्येक चित्र एक स्वायत्त और स्वतंत्र कलाकृति के रूप में डटा रहता  है | यूं ही देखें तो अक्षय की कृतियाँ रूप और बुनावट में समृद्व दिखती हैं, और अगर ध्यान से निरीक्षण करें, तो वह एक ऐसी दुनिया निर्मित करती दिखती हैं जो दृश्य संदर्भों के विविध तत्त्वों को समाहित किए हुए हैं; तथापि कृति की सहजता और गतिकता के कारण, इस समूची प्रक्रिया में कुछ भी नाटकीय ढंग से आयोजित नहीं प्रतीत होता | अक्षय के चित्रों में एक भव्य संरचना और एक प्रतिध्वनित लय प्राप्त होती है जो एक निश्चित और दृढ़ तत्त्व लिए हुए होती है और वह अंतर्विरोध तथा आनंदप्रद तनाव का भाव पैदा करती है | इस अर्थ में अक्षय आमेरिया का रचना-संसार एक नैतिक अन्वेषण है - किन्हीं स्थूल अर्थों में नहीं बल्कि आध्यात्मिक और संवेदनात्मक अर्थों में - क्योंकि अन्ततः 'इनरस्केप' का बोध ही समस्त प्रकार की नैतिकता का बुनियादी स्त्रोत है | अखंडित, निर्वैयक्तिक और पारदर्शी चेतना के लिए कलाकार के संघर्ष को अक्षय के चित्रों में देखा / पहचाना जा सकता है |

अक्षय आमेरिया के कुछेक चित्रों को आप भी यहाँ देख सकते हैं |