Wednesday, March 31, 2010

सिद्वार्थ ने 'डेकोरेटिव काऊ' के जरिये जीवन और समाज की विविधतापूर्ण परिघटनाओं को समग्रता में तथा संवेदना के स्तर पर अभिव्यक्त किया है

रेलिगेअर आर्ट्स डॉट आई ने 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों की एक बड़ी प्रदर्शनी आयोजित की है | सिद्वार्थ भारतीय समकालीन कला के चित्रकारों में एक अलग तरह की पहचान रखते हैं | समकालीनता को परंपरा के साथ जोड़ कर देखने और दिखाने का काम करने का प्रयास यूं तो बहुत लोगों ने किया है, पर वास्तव में उसे कर सकने में जो थोड़े से लोग ही सफल हो सके हैं, उनमें सिद्वार्थ भी एक     हैं | सिद्वार्थ ने जैसे एक ज़िद की तरह अपने चित्रों को पूरने में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया है | बचपन के असर से दुनिया भर का चक्कर लगा लेने के बाद भी वह जैसे मुक्त नहीं हो पाए    हैं | सिद्वार्थ ने अपनी माँ को काम करते देखते हुए मिट्टियों के रंगों की, फूलों के रंगों की, नीलडली व हिरमिची और रंग-बिरंगे पत्थरों को पीस/घोंट कर तैयार किए गये रंगों की जिस चमक को जाना/पहचाना था, वह चमक जैसे आज भी उनमें बसी हुई है | उनकी माँ रंगों से सजे पेपरमैशी के बर्तन बनाती थीं | सिद्वार्थ को अपने बचपन में कारीगरी और रंगों का कैसा वातावरण मिला, इसे दिनभर के कामकाज से थके-मांदे घर लौटे उनके पिता की शिकायतभरी चुहल से जाना जा सकता है जो वह अक्सर करते थे - 'ओ कोई रोटी-पानी भी बना है घर में या फिर बेल-बूटा, चित्र-कढ़ाई ही है |' इसके साथ ही वह यह कहना भी नहीं चूकते थे 'हैं तो सुंदर पर भूख भी तो लगती है न |' गाँव के स्कूल में जहाँ मास्टर को यह तो पता था कि चित्र बनाने का काम सुंदर दिखने वाले ब्रशों से और चमकदार रंगों से सफेद कागज पर होता है, सिद्वार्थ को यह उलाहना अक्सर सुनना पड़ता था - 'यह तू कौन मिट्टियों से चित्र बनाता               है |' माता-पिता की साझी मेहनत-मजदूरी पर पलते चार बेटे व दो बेटियों के परिवार के सदस्य के रूप में सिद्वार्थ के लिये हो सकता है कि उस समय मिट्टियों से चित्र बनाना मजबूरी भी रहा हो, लेकिन मिट्टियों में उन्होंने अपनी रचनात्मकता के जो स्त्रोत देखे / पाए थे, उन्हीं मिट्टियों पर भरोसा बनाये रखने के चलते सिद्वार्थ की एक भिन्न पहचान बनी है |
'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से प्रदर्शित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों ने उनकी भिन्न पहचान के रंग को वास्तव में और गाढ़ा बनाने/करने का ही काम किया है | गाय (काउ) तो सिर्फ बहाना है | उसे डेकोरेट करके सिद्वार्थ ने जीवन और समाज की विविधतापूर्ण परिघटनाओं - चाहें वह आर्थिक हों, सामाजिक हों, धार्मिक हों, स्वार्थी हों या मनमौजी हों - को समग्रता में अभिव्यक्त किया है; तथा संवेदना के स्तर पर गहरे अर्थों को पहचानने के लिये प्रेरित करने से लेकर उनसे जुड़ने के लिये जैसे उकसाने का काम किया है | विषय-वस्तु के नजरिये से देखें, तो सिद्वार्थ ने प्रायः जानी-पहचानी स्थितियों को लेकर ही अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों को रचा है और एक बड़ा खतरा उठाया है | दरअसल, हमारे यहाँ समकालीन कला में जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर चित्र रचना करने की कोई बहुत सार्थक परंपरा ही नहीं है | यह खासा खतरेभरा और चुनौतीभरा भी माना जाता है | जानी-पहचानी चीजों व स्थितियों पर आधारित चित्र रचना में दर्शक/प्रेक्षक (और ख़ुद कलाकार) के लिये भी यह खतरा तो रहता ही है कि उनकी नज़र चित्र के रचनात्मक 'तथ्यों' को पहचानने की बजाये चीजों व स्थितियों की 'आकार रेखाओं' को ही चित्र में ढूँढ़ने लग जाती हैं | सिद्वार्थ ने अपने चित्रों व मूर्तिशिल्पों में इस खतरे को पास भी नहीं फटकने दिया है तो यह उनका रचनात्मक कौशल तो है ही, साथ ही संवेदनात्मक यथार्थपरकता पर यह उनकी पकड़ का सुबूत भी है |
सिद्वार्थ की सक्रियता को देख/जान कर भी समझा जा सकता है कि उनके लिये जैसे कला और जीवन एक  दूसरे के पर्याय जैसे हैं | उन्होंने ख़ुद भी कहा है 'सदा से मुझे याद है कि चित्रों के साथ-साथ ही जिया हूँ | इसके बिना रहने का कोई अवसर हुआ ही नहीं |' सिद्वार्थ ने यूं तो चंडीगढ़ कॉलिज ऑफ ऑर्ट से डिप्लोमा किया है, लेकिन कला की मूल भावना व बारीकियों को पहचानने तथा पकड़ने के हुनर को पाने के लिये उन्होंने दूसरे ठिकानों पर ज्यादा भरोसा किया | सिद्वार्थ ने घर-गाँव तो छोड़ा था शोभा सिंह से पोट्रेट सीखने के लिये, पर फिर उन्होंने तिब्बतन कला थानग्का सीखने का निश्चय किया और इसके लिये धर्मशाला स्थित एक बौद्व मठ में उन्होंने छह साल बिताये | इसके अलावा, सिद्वार्थ ने मधुबनी पेंटिंग भी सीखी और कश्मीरी पेपरमैश क्राफ्ट कला सीखने के लिये पुश्तैनी शिल्पकारों की शागिर्दी भी    की | स्वीडन में उन्होंने ग्लास ब्लो का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया | कोई भी चकित हो सकता है और जानने का इच्छुक भी कि कला में सिद्वार्थ आखिर क्या-क्या जानना-सीखना और करना चाहते हैं ? उनकी सक्रियता किसी को भी हैरान कर सकती है | उन्होंने देश के विभिन्न शहरों के साथ-साथ ब्रिटेन, अमेरिका, स्वीडन आदि देशों में बाईस एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा करीब सवा सौ समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | देश-विदेश में सिद्वार्थ को अपनी कला के प्रशंसक तो मिले ही हैं, वह पुरुस्कृत और सम्मानित भी खूब हुए हैं | ब्रिटिश काउंसिल से अवार्ड पाने वाले गिने-चुने भारतीय चित्रकारों में सिद्वार्थ का नाम भी    है | सिद्वार्थ ने सिर्फ पेंटिंग्स ही नहीं की है; उन्होंने मूर्तिशिल्प भी बनाये हैं तथा भारत की कला, यहाँ के शिल्प और यहाँ के मंदिरों पर पंद्रह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाई हैं | ख़ुद उनके काम और उनकी कला पर भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनी है | 'इन सर्च ऑफ कलर - ए पेंटर सिद्वार्थ' शीर्षक से उक्त फिल्म का निर्माण कला फिल्मों के मशहूर निर्माता के बिक्रम सिंह ने किया  है |
रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों की प्रदर्शनी को देखते हुए मैं लगातार उस कहानी को याद करता रहा जो सिद्वार्थ ने करीब पांच साल पहले नागपुर में आयोजित हुए एक कला शिविर में 'संदर्भ और स्मृतियाँ' विषय पर दिये अपने व्याख्यान में सुनाई थी : 'एक शिष्य गुरु के पास गया और कहने लगा गुरु जी मुझे चित्र कला सिखा दो | गुरु ने कहा पहले मूर्तिकला सीख कर आओ | शिष्य मूर्तिकला के गुरु के पास गया | कहने लगा - मुझे मूर्तिकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे, पहले नृत्य कला सीख कर आओ | वह नृत्यकला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे नृत्यकला सिखा दो | गुरु ने कहा - सिखा देंगे राजन, पहले तुम संगीत कला सीख कर आओ | वह संगीत कला के गुरु के पास गया और उनसे कहा - गुरुजी मुझे संगीत सिखा दो | गुरु ने कहा - क्या तुम्हें शब्दों का ज्ञान    है ? शब्दों  की ध्वनियों को तुमने कभी ध्यान से सुना है ? तुम्हें अपनी मातृभाषा आती है ? ऐसा करो, ध्वनियों को सुनने तुम जंगल में चले जाओ | वहाँ बहते झरने को सुनो, जो सदियों से बह रहा है | बहुत सारी स्मृतियाँ लिये हुए आता है, जाता है, फिर वापस आता है | कल-कल नाद करते हुए बह रहा है, जाओ उसको सुनो, फिर आना |' 'डेकोरेटिव काऊ' देखते हुए और देख कर लौट आने के बाद भी मैं गायों से जुड़ी यादों व अनुभवों के घेरे से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ | रेलिगेअर कला दीर्घा में 'डेकोरेटिव काऊ' शीर्षक से आयोजित प्रदर्शनी में सिद्वार्थ के चित्रों व मूर्तिशिल्पों को देखना मेरे लिये सचमुच में एक विलक्षण अनुभव रहा | किसी और गैलरी में उनके इन चित्रों व मूर्तिशिल्पों को शायद ही इतने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता होता | इसका श्रेय सीमा बावा तथा दीर्घा के कर्ताधर्ताओं को भी है | सीमा बावा ने इस प्रदर्शनी को क्यूरेट किया है और वास्तव में उन्होंने अपना काम खासी दक्षता के साथ किया है |

Saturday, March 27, 2010

परमिंदर सिंह संधू के मूर्तिशिल्पों में जीवन की लय और ताल थिरकती नज़र आती है

परमिंदर सिंह संधू के मूर्तिशिल्पों को लेकर मैं पिछले कुछ समय से लगातार एक दिलचस्प अनुभव का साक्षी और सहभागी बना हुआ हूँ | पिछले कुछ समय में, जब भी मूर्तिशिल्प कला को लेकर किसी से कोई बात हुई और या मूर्तिशिल्प कला को लेकर हो रही बातचीत का मैं हिस्सा बना तो अधिकतर मौकों पर मैंने  दिल्ली के कलाकारों व कला प्रेक्षकों को परमिंदर के मूर्तिशिल्पों को लोगों को याद करते तथा रेखांकित करते हुए पाया है | परमिंदर एक युवा शिल्पकार हैं और अभी तक उनकी सक्रियता का केंद्र मौटे तौर पर चंडीगढ़ ही है | कहने को तो उन्होंने दीमापुर ( नागालैंड ), शांतिनिकेतन ( पश्चिम बंगाल ), नागपुर ( महाराष्ट्र ), उदयपुर ( राजस्थान ), मुरथल ( हरियाणा ), भोपाल ( मध्य प्रदेश ) और नई दिल्ली में किसी समूह प्रदर्शनी या किसी प्रतियोगिता या किसी कैम्प में शामिल होने के बहाने से अपने काम को प्रदर्शित किया है; लेकिन बड़े स्तर पर अपने काम को प्रदर्शित कर पाने का अवसर उन्हें अभी भी प्राप्त करना है | नई दिल्ली में पिछले वर्ष जून में उन्होंने चंडीगढ़ के बाहर अपने शिल्पों की पहली एकल प्रदर्शनी जरूर की थी | मैंने अपने जिस अनुभव का ज़िक्र किया है, वह शायद आठ महीने पहले हुई उसी प्रदर्शनी का असर है | मुहावरे का सहारा लेँ तो कह सकते हैं कि परमिंदर के मूर्तिशिल्पों का जादू लोगों के जैसे सिर चढ़ कर बोल रहा है | उक्त प्रदर्शनी को देख सकने का सौभाग्य मुझे भी मिला था और परमिंदर के मूर्तिशिल्पों के साथ-साथ परमिंदर की काम करने की जिजीविषा ने मुझे भी प्रभावित किया था | मैंने अपने जिस अनुभव का ज़िक्र किया है, उससे मुझे स्वाभाविक रूप से यह भी पता चला ही है कि परमिंदर के काम से एक मैं ही प्रभावित नहीं हुआ था, बल्कि और कई लोगों को भी परमिंदर के काम ने छुआ है |  
सबसे पहले तो, ललित कला में सबसे दुस्साध्य और कठिन माध्यम के रूप में पहचाने जाने वाले मूर्तिशिल्प कला में किसी युवा कलाकर का काम करना ही लोगों को चौंकाता है | स्वाभाविक रूप से इस माध्यम में वही कलाकार काम करना पसंद करते हैं जो कठिन परिश्रम करने को तैयार होते हैं, तथाकथित सफलता पाने की जल्दी में नहीं होते हैं और कलाकार के रूप में कला-बाजार की उपेक्षा का खतरा उठाने से घबराते नहीं हैं | अमृतसर जिले की तरन तारन तहसील के गाँव छुटाला में वर्ष 1977 के फरवरी माह की तेरह तारिख को जन्मे परमिंदर सिंह संधू के काम को देखने वालों ने तो लेकिन यह भी रेखांकित किया है कि उन्होंने मूर्तिकला जैसे अधिक मेहनत और समय की मांग करने वाले दृश्यगत भाषा-माध्यम को सिर्फ चुना ही नहीं, बल्कि पूरी तल्लीनता और शिद्दत के साथ उसे निभाया भी है |
परमिंदर की कलाकृतियों में मानवा-कारों के साथ-साथ बीज व सर्प रूपाकारों और अमूर्त तत्त्वों को साफ़  देखा / पहचाना जा सकता है | उनकी प्रायः सभी कृतियों में 'एरॉटिक' तत्त्वों का समावेश है, लेकिन उनमें सौंदर्य की सूक्ष्मता तथा संयम दोनों को सहज ही महसूस किया जा सकता है | परमिंदर की कलाकृतियाँ माँसल ऐंद्रिकता से भरपूर हैं और जिनमें व्यक्त हुई परिष्कृत कला-चेतना की बारीकियाँ पहली बार में ही आकर्षित भी करती हैं और प्रभावित भी | परमिंदर के मूर्तिशिल्पों के रूपाकारों के सृजन में ऐंद्रिकता की कोमलता व रेखाओं की उदात्त मितव्ययिता का समावेश है, जिससे इन रूपाकारों के स्पर्श-संवेदन और रहस्यमय गत्यात्मकता में विलक्षणता प्रकट होती है | परमिंदर ने विविधतापूर्ण रूपाकारों की जो रचना की है, उनमें व्यक्त होने वाले अप्रत्याशित मोड़, उठान, प्रक्षेपन, दरारें और ढलानें आदि - सभी तत्त्व अपनी सामूहिकता में जिस कलात्मक लय का सृजन करते हैं, उसके चलते कलाकृति की सौंदर्यात्मक एकात्मकता में और भी श्रीवृद्वि हो जाती है |
मूर्तिशिल्प सृजन की अपनी सशक्त भाषा को विकसित कर चुके परमिंदर के टैक्सचर की विशेषता है कलाकृतियों में शिलाओं की रूक्षता और स्निग्धता के परस्पर विपरीत गुणों के बीच विद्यमान सृजनात्मक तथा दृश्यमूलक समन्वय स्थापित करना | मूर्तिशिल्प के उत्तेजक और कहीं-कहीं चमत्कारिक से लगते उठाव-गिराव उनकी वर्णात्मक लय को दर्शक के लिये और अधिक आकर्षक बना देते हैं, क्योंकि उनमें जीवन की लय और ताल थिरकती नज़र आती है | खासी मेहनत और निरंतर संलग्नता के भरोसे अपनी प्रतिभा को व्यापक रूप देते हुए परमिंदर ने वास्तव में मूर्तिकला में पंजाब की भागीदारी व उपस्थिति को और गाढ़ा बनाने का ही काम किया है, तथा धनराज भगत, अमरनाथ सहगल, वेद नैयर, बलबीर सिंह कट्ट, हरभजन संधू, शिव सिंह, ए सी सागर, अमरीक सिंह, अवतार सिंह आदि प्रमुख शिल्पकारों की परंपरा को और समृद्व करते जाने के प्रति आश्वस्त करने का ही काम किया है |      
परमिंदर सिंह संधू को पिछले ही वर्ष पंजाब ललित कला अकादमी ने सम्मानित किया है | पंजाब ललित कला अकादमी में सम्मानित होने का यह उनका दूसरा मौका था | इससे पहले, वर्ष 2004 में भी परमिंदर पंजाब ललित कला अकादमी के वार्षिक आयोजन में सम्मानित हो चुके थे | वर्ष 2008 में नागपुर में आयोजित हुई बाइसवीं अखिल भारतीय कला प्रतियोगिता में वह पुरुस्कृत हुए | उससे पिछले वर्ष, यानि वर्ष 2007 में चंडीगढ़ ललित कला अकादमी की वार्षिक कला प्रदर्शनी में परमिंदर का काम पुरुस्कृत हुआ था |
उससे भी पहले, वर्ष 2006 में आईफैक्स की 78 वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी में परमिंदर सिंह को सम्मानित करने के लिये चुना गया था और वह दिल्ली में संपन्न हुए एक भव्य कार्यक्रम में कई कलाकारों के बीच सम्मानित हुए थे | आईफैक्स में सम्मानित होने का भी परमिंदर का यह दूसरा अवसर था | इससे पहले हालाँकि वह दिल्ली में नहीं, बल्कि चंडीगढ़ में सम्मानित हुए थे | चंडीगढ़ में वर्ष 2002 में आयोजित हुई आईफैक्स की राज्यस्तरीय प्रदर्शनी में उन्हें सम्मानित करने के लिये चुना गया था | ज़ाहिर तौर पर, परमिंदर सिंह संधू के काम को संस्थाओं की ओर से भी और लोगों से भी व्यापक सराहना मिली है | वास्तव में यह सराहना ही उनकी प्रतिभा और रचनात्मक क्षमता की गवाह भी है और सुबूत भी |