Friday, April 16, 2010

नीनू विज के चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं

नीनू विज की गुड़गाँव के एपैरल हॉउस में स्थित एपिसेंटर कला दीर्घा में 17 अप्रैल से आयोजित होने जा रही एकल प्रदर्शनी के शीर्षक 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' ने मुझे हंगरी के विख्यात कला इतिहासकार आर्नल्ड हाऊजर की वह उक्ति याद दिला दी, जिसमें उन्होंने कलाकृति की तुलना दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की से की है | 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' शीर्षक में मुझे ठीक खिड़की वाले अर्थ ही ध्वनित होते लगे हैं जो भविष्य की ओर - दुनिया की ओर खुलने का दावा या वायदा कर रहा है | नीनू विज की कलाकृतियों से मैं परिचित हूँ और उनकी कलाकृतियों को लगातार मैं देखता रहा     हूँ | नीनू पिछले काफी समय से प्रकृति-उपकरणों को लेकर ही काम कर रहीं हैं और इन उपकरणों की एक समानता के बावजूद हर बार उनके काम में एक और गहराई दीख पड़ती है | नीनू विज के कैनवस पहली नज़र में लैंडस्केप का आभास देते हैं | लेकिन उनके चित्र निरे लैंडस्केप नहीं हैं | उनके चित्रों में प्रकृति-उपकरण किसी यथातथ्य चित्रण के रूप में प्रकट नहीं हैं, बल्कि उसी रूप में वह कैनवस पर दिखते हैं, जिसमें वह उनके मन के आकाश को बदलते रहे हैं या जिस रूप में नीनू विज के मन का आकाश उनमें अपने को प्रक्षेपित करता रहा है | भीतरी-बाहरी 'दुनिया' और स्पेस के एक गहरे अंतर्संबंध को नीनू विज के चित्रों में बराबर से साफ़ देखा / पहचाना जा सकता है | इसीलिए 'एण्ड सो द स्टोरी गोज ....' शीर्षक मुझे बहुत मौजूं भी लगा और सटीक भी | इस शीर्षक के चलते, नीनू विज के पिछले काम जब मेरी स्मृति में आते गये तो सहसा आर्नल्ड हाऊजर की खिड़की वाली उक्ति याद आ गई |  
आर्नल्ड हाऊजर ने कलाकृति की तुलना जब दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की से करने की सोची होगी, तब उनका आशय यही रहा होगा कि देखने वाला चाहे तो सारा ध्यान खिड़की पर ही दे या बिल्कुल ही न दे | वह चाहे तो खिड़की के शीशे की गुणवत्ता, संरचना या रंग से बिना कोई मतलब रखे सीधे बाहर के दृश्य का अवलोकन करे | इस तुलना के मुताबिक, कलाकृति को अनुभवों का वाहक मात्र, खिड़की का पारदर्शी कांच या आँख का चश्मा कहा जा सकता है जिस पर पहनने वाला कोई ध्यान नहीं देता है और जो एक उद्देश्य का साधन मात्र है | इसके विपरीत, कोई चाहे तो बाहरी दृश्य को नजरंदाज करके अपना सारा ध्यान खिड़की के कांच और उसकी संरचना पर ही लगाये रह सकता है; मतलब कलाकृति को एक स्वतंत्र, अपारदर्शी रूपगत संरचना, अपने बाहर की किसी भी चीज से अलग थलग स्वयंसंपूर्ण सत्ता की तरह देख सकता है | निस्संदेह, कोई भी जब तक चाहे खिड़की के कांच पर ही टकटकी लगाये रख सकता है, लेकिन ध्यान देने की और याद रखने की बात यह है कि खिड़की बाहरी दुनिया को देखने के लिये बनी होती है |
नीनू विज के चित्रों के सामने खड़े होते ही हम अपने भीतर और बाहर 'देखने' के लिये प्रेरित होते है | नीनू विज के चित्रों में हर बड़ी-छोटी चीज का रचनात्मक इस्तेमाल होता हुआ दिखता है : जितना ध्यान उन्होंने किसी रंग की व्याप्ति पर दिया है, उतना ही उस छोटे से रंग क्षेत्र पर या रंगतों पर भी दिया है जो इस व्याप्ति के बीच - तेज 'बहाव' के बीच - झांक रहा है | शायद इसीलिए नीनू विज के चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं | रंगों में यह निचोड़, रंगभाषा के बारे में हमारी संवेदना में बहुत कुछ जोड़ता है | दरअसल यहीं आकर हम यह भी पहचान सकते हैं कि नीनू विज के चित्रों में हमारे ही रंगों के साथ हमारे मानसिक चाक्षुष बौद्विक संबंध को जैसे उजागर किया गया है; और उनके रंगबोध के स्तर पर अपने समय के साथ चलने वाले भी सिद्व हुए हैं - उन्होंने उनमें अर्थ भरे हैं और उनके साथ हमारे लिये एक संवाद की स्थिति पैदा की है |
नीनू विज के अमूर्त रूपाकारों को देखते हुए मैं इस बात को लगातार रेखांकित करता हूँ कि कला के शुद्व रूपगत नियम सारतः खेल के नियमों से भिन्न नहीं होते | ये नियम जितने भी जटिल, सूक्ष्म और उम्दा हों खेल जीतने के अलावा उनका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं होता | फुटबाल के खिलाड़ी के प्रयासों को अगर हम केवल हलचल के रूप में देखेंगे तो पहले वे दुर्बोध और कुछ देर बाद उबाऊ लगने लगेंगे | कुछ देर के लिये हो सकता है कि उनकी तेजी और चपलता से थोड़ा मजा आये - लेकिन जो इस सारी दौड़धूप, उछलकूद और धक्का-मुक्की के उद्देश्य को जानता है उस विशेषज्ञ दर्शक के आनंद के मुकाबले यह अत्यंत अर्थहीन होगा | कलाकार अपनी कृति के जरिये लोगों को सूचित करने, सहमत करने, प्रभावित करने का जो लक्ष्य लेकर चला है उस लक्ष्य को यदि हम नहीं जानते या नहीं जानना चाहते तो उसकी कला के बारे में हमारी समझ फुटबाल के उस जाहिल दर्शक से बहुत आगे नहीं बढ़ सकती जो खिलाड़ियों की गति की सुंदरता के ही आधार पर फुटबाल को समझता है | कलाकृति संवाद होती है - यद्यपि यह बात पूरी तरह सही है कि इसके सफल संप्रेषण के लिये ऐसे बाहय रूप की जरूरत होती है जो एकदम प्रभावी, आकर्षक और निर्दौष हो; लेकिन यह भी उतना ही सही है कि यह रूप जो संवाद संप्रेषित करता है उसके परे इसका कोई महत्त्व नहीं होता | किसी भी कलाकृति का एक आंतरिक तर्क होता ही है और इसके विशिष्ट गुण इसके विविध स्तरों और विभिन्न मूल भावों के आंतरिक संरचनात्मक संबंधों में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते ही हैं |       
यह आकस्मिक नहीं है कि केशव मलिक जैसे कला मर्मज्ञ ने कुछ ही वर्ष पहले इस तथ्य को रेखांकित किया था कि नीनू विज उन युवा चित्रकारों में हैं जिनके चित्रों में चित्रता गुण भरपूर है और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो स्वयं को देखे जाने के लिये ठिठकाती तो है ही, साथ ही अपने होने को विश्लेषित करने के लिये हमें तरह-तरह से उकसाती और प्रेरित भी करती है |

Tuesday, April 6, 2010

मूर्तिभंजक चित्रकार फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा ने अपने जीवन में और अपने काम में हमेशा ही चीजों को व स्थितियों को तार्किक तरीके से समझने का प्रयास किया

धूमीमल ऑर्ट गैलरी के सौजन्य से फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के बहुत से काम एक साथ देखने का मौका हमें मिलने जा रहा है, तो यह सचमुच एक बड़े रोमांच की बात है | दिल्ली में धूमीमल ऑर्ट गैलरी के रवि जैन को सूज़ा के काम के एक बड़े संग्रहकर्ता के रूप में जाना-पहचाना जाता है | दिल्ली में, हालाँकि इब्राहिम अलक़ाज़ी के पास भी सूज़ा के चित्रों का अच्छा खासा संग्रह है | इब्राहिम अलक़ाज़ी के पास तो सूज़ा की बिल्कुल शुरुआती पेंटिंग्स भी हैं, जिन पर न्यूटन के नाम से हस्ताक्षर हैं | इन पेंटिंग्स को अलक़ाज़ी ने कुछ साल पहले - सूज़ा जब जीवित थे - अपने एक शो में प्रदर्शित भी किया था | साल 2002 के मार्च माह की 28 तारीख को हुए सूज़ा के निधन के बाद वढेरा ऑर्ट गैलरी ने हालाँकि 'ए ट्रिब्यूट टु फ्रांसिस न्यूटन  सूज़ा' शीर्षक से सूज़ा के चित्रों की एक बड़ी प्रदर्शनी की थी, लेकिन उसमें सूज़ा के पचास और साठ के दशक में किए गये काम ही ज्यादा थे; बाद के भी कुछ काम थे, पर उनकी संख्या कम थी | धूमीमल ऑर्ट गैलरी के सौजन्य से ललित कला अकादमी की दीर्घाओं में 9 अप्रैल से सूज़ा के चित्रों की जो प्रदर्शनी होने जा रही है, उसमें सूज़ा के साल 1940 से 1990 के बीच किए गये कामों में से चुने गये करीब दो सौ कामों को प्रदर्शित करने की तैयारी है | इस हिसाब से कह सकते हैं कि निधन के बाद सूज़ा के चित्रों की यह सबसे बड़ी प्रदर्शनी है | इस तरह इसे सूज़ा की सिंहावलोकन प्रदर्शनी के रूप में भी देखा जा सकता है | इस प्रदर्शनी को यशोधरा डालमिया ने क्यूरेट किया है |  
सूज़ा पहले भारतीय चित्रकार हैं जिन्हें पश्चिम के कला प्रेमियों, प्रशंसकों, प्रेक्षकों व व्यापारियों ने मान्यता दी और एक कलाकार के रूप में जिनका लोहा माना | प्रसिद्व दार्शनिक व चिंतक एज़रा पाउंड ने घोषित किया था कि 'सूज़ा महान है और वह इस बात को जानता भी है |' सूज़ा 1949 में लंदन चले गये थे | हालाँकि वह वहाँ गये थे घूमने - फिरने के लिहाज से और म्यूजियम आदि देखने ताकि उनका ज्ञान और सौंदर्यशास्त्र की समझ बढ़ सके | लेकिन वहाँ पहुँच कर उनका पेंटिग करने में ऐसा मन लगा कि फिर उन्होंने वहीं बस जाने का फैसला कर लिया | उनकी पत्नी मारिया ने वहाँ नौकरी की और उन्होंने पेंटिंग | 1955 में उन्होंने लंदन में पहली प्रदर्शनी की | उस समय तक हालाँकि वह वहाँ खासे जाने - पहचाने हो गये थे | प्रदर्शनी के बाद तो वह वहाँ पूरी तरह स्थापित हो गये | महान कलाकार हेनरी मूर और ग्रैम सदरलैंड वहाँ उनके खास दोस्तों में थे | 1956 में सूज़ा स्टॉकहोम गये | वहाँ वह अकबर पदमसी और हैदर रज़ा के साथ मैडम कुटूरी से मिलने गये, जो पिकासो की मित्र थीं | वह लोग बातें कर ही रहे थे कि पिकासो वहाँ आ गये | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि 'वह बहुत ही रोमांचकारी क्षण था |'
सूज़ा का जन्म गोवा में हुआ था, लेकिन जल्दी ही उनकी माँ उन्हें लेकर मुंबई आ गई थीं | सूज़ा के जन्म के कुछ ही बाद उनके पिता का देहांत मात्र 24 साल की उम्र में ही हो गया था | सूज़ा की बड़ी बहन की भी मृत्यु डेढ़ - दो साल की उम्र में ही हो गई थी | बचपन में सूज़ा को भी चेचक हो गई थी, जिसके कारण उनकी माँ को उन्हें लेकर डर हुआ और नतीजतन वह उन्हें लेकर मुंबई आ गईं | मुंबई में उनकी माँ को किसी चर्च से कपड़े सिलने का काम मिला था, जो कि वह बहुत बारीकी से करती थीं | सिले हुए कपड़े को वह कशीदाकारी से सजाती भी थीं | इस बात को याद करते हुए सूज़ा ने एक बार कहा था कि वह भी अपनी पेंटिंग्स को उसी तरह सजाने की कोशिश करते हैं | सूज़ा की माँ उन्हें संत बनाना चाहती थीं क्योंकि बचपन में उन्हें जब चेचक हुई थी तब उनकी माँ ने सेंट फ्रांसिस जेवियर के सामने उन्हें संत बनाने की प्रतिज्ञा की थी | लेकिन सूज़ा ने माँ की इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली | दरअसल धर्म को लेकर सूज़ा में कभी कोई दिलचस्पी पैदा ही नहीं हो सकी, क्योंकि उन्होंने हमेशा ही चीजों को व स्थितियों को तार्किक तरीके से समझने का प्रयास किया |
सूज़ा को चित्र बनाना तो बचपन से ही पसंद था और इसीलिए बड़े होकर उन्होंने कला की विधिवत शिक्षा लेने का फैसला किया | इसके लिये उन्होंने जे जे कॉलेज ऑफ ऑर्ट में दाखिला लिया, पर वह वहाँ अपना कोर्स पूरा नहीं कर सके | असल में, कॉलेज में लगे इंग्लैंड के झंडे यूनियन जैक को उतार कर गांधी जी का झंडा लहराने के काम में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ बढ़चढ़ कर भाग लिया था, जिसके चलते उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया था | तब वह गोवा लौट गये थे और वहाँ लैंडस्केप पेंट करने लगे | गोवा में बनाई पेंटिंग्स की उन्होंने मुंबई में प्रदर्शनी की और पहली ही प्रदर्शनी में उनकी एक पेंटिग बड़ौदा म्यूजियम ने खरीदी थी | गोवा में उनका मारिया फिनरारो नाम की लड़की से परिचय हुआ | उन्हें बाद में पता चला कि उसने अपनी सारी तनख्वाह उनकी पेंटिंग्स खरीदने में खर्च कर दी है | मारिया से ही बाद में उनकी शादी हुई | सूज़ा ने कुछ लिखा - लिखाया भी है, लेकिन लिखना उनके लिये कभी भी पेंट करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा | पेंट करना उनका मन का काम रहा | इसके चक्कर में उन्होंने नौकरी नहीं की | जब साधन कम रहे, तब भी नहीं | साधन कम रहे, तब भी उन्होंने लेकिन पेंटिंग करना नहीं छोड़ा |
सूज़ा ने प्रायः आकृतिमूलक काम ही किया है | उनका साफ़ कहना रहा कि उनके लिये आकृति ही सब कुछ है | इसलिए वह जब भी कोई पेंटिंग बनाते हैं तो वह किसी आकृति की ही होती है, जिसकी एक निश्चित रूपरेखा हो | उनका मानना और कहना रहा कि एक महान पेंटिंग वही है जिसमें आकृति एक निश्चित रूपरेखा में चित्रित की गई हो | दो आयामी चित्रों में आप त्रिआयामी चीजों को उतार सकते हैं और साथ ही उनमें रंग भर सकते हैं, पर इसके लिये यह जरूरी है कि पेंटिंग का एक निश्चित आधार हो | सूज़ा का व्यवहार खासा आक्रामक था और अपने समकालीन चित्रकारों के साथ उनकी खासी गर्मागर्मी रहती थी | उनका यह 'व्यवहार' उनके चित्रों में भी दिखता रहा है, और इसी 'व्यवहार' के कारण उनके चित्रों में 'बोल्डनेस' रही है - रूप के स्तर पर भी और विषय के स्तर पर भी | इसी के चलते उन पर यह आरोप भी लगा कि उनमें एक प्रकार का परावर्शन और डिस्टार्शन है | 'बोल्डनेस' के कारण ही उन्हें मूर्तिभंजक चित्रकार के रूप में भी देखा / पहचाना गया है |