Tuesday, January 14, 2014

सुबोध गुप्ता का काम एक आम दर्शक को भी 'कलाकार' हो सकने का अहसास करवाता है

राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (एनजीएमए - नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट) में 16 जनवरी की शाम को समकालीन कला के भारतीय स्टार कलाकार सुबोध गुप्ता के काम की जो एकल प्रदर्शनी उद्घाटित हो रही है उसे एक युगांतकारी घटना के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में विशिष्ट पहचान रखने वाले, बिहार में पैदा हुए और दिल्ली के नजदीक गुड़गाँव में रह रहे 49 वर्षीय सुबोध गुप्ता का यह देश में अभी तक का सबसे बड़ा म्यूजियम शो होगा । कुछ लोग इसे सुबोध गुप्ता के काम की पुनरावलोकन प्रदर्शनी के रूप में भी व्याख्यायित कर रहे हैं, लेकिन खुद सुबोध गुप्ता इसे अपने कला-जीवन की मिड-कैरियर प्रदर्शनी के रूप में देख रहे हैं । इस प्रदर्शनी में सुबोध गुप्ता के करीब 40 बहुत महत्वपूर्ण समझे गए और चर्चित हुए काम प्रदर्शित होंगे । इस प्रदर्शनी में सुबोध गुप्ता के 'बिहारी' शीर्षक सेल्फ-पोर्ट्रेट को भी देखा जा सकेगा, जिसे वह कई बार भावुक अंदाज में अपने बहुत नजदीक बताते रहे हैं ।
राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में आयोजित हो रही इस प्रदर्शनी को लेकर सुबोध गुप्ता खुद को एकसाथ रोमांचित और आकुल पा रहे हैं । उनका कहना है कि प्रत्येक कलाकार अपने जीवन में म्यूजियम शो का सपना देखता है; यह जान/देख कर स्वाभाविक रूप से मुझे अप्रतिम खुशी हो रही है कि मेरा सपना पूरा हो रहा है । प्रदर्शनी की तैयारियों का जायेजा लेते हुए उनका कहना रहा कि देश में और विदेशों में उन्होंने कई प्रदर्शनियाँ की हैं, लेकिन जिस तरह की उथल-पुथल से वह अभी गुजर रहे हैं, वैसा उन्होंने कभी महसूस नहीं किया है ।
बिहार के खगौल में वर्ष 1964 में एक साधारण परिवार में जन्मे सुबोध गुप्ता ने वर्ष 1983 से 1988 तक पटना के कॉलिज ऑफ ऑर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स में कला की पढ़ाई की । अपने कला जीवन की शुरुआत उन्होंने पेंटिंग से की, लेकिन जल्दी ही वह इंस्टॉलेशन और परफॉर्मेंस ऑर्ट की तरफ मुड़े । उन्होंने स्टील के बर्तनों को लेकर काम करना शुरू किया और फिर स्टील ही उनकी पहचान बन गया । एक कलाकार के रूप में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि सुबोध यह मानते हैं कि आम दर्शक भी उनके काम में अपने आप को देखता/पहचानता है । वह याद करते हुए बताते हैं कि करीब पंद्रह-अठारह वर्ष पहले जब उन्होंने स्टील के बर्तनों को लेकर काम करना शुरू किया था तब देश में अधिकतर परिवारों में स्टील के बर्तन ही इस्तेमाल होते थे । हालाँकि स्टील के बर्तनों का प्रचलन अब कम हो गया है, लेकिन फिर भी अभी भी वह इस्तेमाल होते ही हैं । कई ऐसे मौके आये हैं जब उनके काम को देखते हुए कोई कोई बेसाख्ता कह उठता कि 'अरे यह तो मेरे घर की चम्मच जैसी ही चम्मच है ।' अपने काम के आगे खड़े होकर फोटो खिंचवाते लोगों को देख कर उन्हें वास्तविक खुशी मिलती है ।
सुबोध गुप्ता का काम इस तरह एक आम दर्शक को भी 'कलाकार' हो सकने का अहसास करवाता है । उनके काम को - काम में प्रयुक्त हुए बर्तनों को देखते हुए दर्शक जब मन ही मन कुछेक अन्य छवियाँ उभार रहा होता है, किसी काम में कुछ जोड़-घटा रहा होता है, तो उस समय वह भी एक प्रकार का कलाकार ही हो जाता है । जिसे हम किसी कलाकृति के आस्वाद का आनंद कहते हैं, तो वह आनंद दर्शक के लिए एक कलाकार की रचना-प्रक्रिया जैसा ही आनंद तो होता है - ऐसा ही 'आनंद' उठाने का मौका सुबोध गुप्ता का काम उपलब्ध करवाता है । यही चीज उनके काम को खास बनाती है ।  

Monday, October 1, 2012

मानव आकृति की उपस्थिति न होने के बावजूद वीणा जैन के चित्रों में एक 'मानवीय उपस्थिति' को पहचाना/महसूस किया जा सकता है

वीणा जैन के चित्रों में अभिव्यक्त कल्पनाशील संयोजन में रंगों व रंगतों की पृष्ठभूमि में विचरण सा करते, जैसे तैरते और उभरते ऐसे रूपाकारों को भी पहचाना जा सकता है जो किन्हीं जीवित संवेगों और अनुभूत मनःस्थितियों के पर्याय हैं | इन रूपाकारों की 'उपस्थिति' बताती है कि अंततः वह एक गुंफन में हैं - किसी निर्धारित गुंफन में नहीं, बल्कि कहीं से शुरू होकर कहीं मिलने और फिर खोजने की मनःस्थितियों के गुंफन में | उनके चित्रों में के सभी अमूर्त रूप संकेतित भर हैं | वीणा उन चित्रकारों में हैं जिनके चित्रों में चित्रता गुण भरपूर हैं और चित्रभाषा की उपस्थिति, एक वास्तविक उपस्थिति लगती है - एक ऐसी उपस्थिति जो देखते ही बनती है और जो अपने विश्लेषण के लिए हमें तरह तरह से उकसाती भी है | चित्रभाषा उनके चित्रों में अच्छे अर्थों में रचनात्मक संयोग भी घटित होने देती है, लेकिन इसी तरह कि हम यह भी देख सकें कि वह अपने को बराबर साधे भी रखती है |
कोई भी कलाकार अपने माध्यम से भावना और अनुभव ही व्यक्त करना चाहता है | वह निजी और व्यक्तिगत अनुभव तो होता ही है; किंतु सिर्फ निजी और व्यक्तिगत नहीं, उनमें सार्वजनिनता अवश्य ही होती है | वह शाश्वत मानवीय अनुभवों की निजी और व्यक्तिगत अभिव्यंजना है | तभी कलाकार की अनन्यता और सार्वजनिनता, एक साथ सार्थक होती है |
वीणा पिछले काफी समय से अलग अलग स्रोतों से प्राप्त या तैयार किए गए प्राकृतिक रंगों में काम कर रही हैं और इन रंगों की एक 'समानता' के बावजूद उनकी विविधतापूर्ण गतियों के कारण हर बार उनके काम में हमें एक और गहराई दिख पड़ती है | वीणा प्रायः हर चित्र में रंग-वातावरण के लिए किसी एक प्रमुख रंग का इस्तेमाल करती हैं और इसी चित्रभूमि में अक्सर पूरी पृष्ठभूमि में फैले रूप उभर आते हैं | इन रूपों के संयोजन में फिर कुछ और रूप दिखते हैं या उनके वहाँ होने का आभास मिलता है | यह रूप या रूप-संयोजन जिन भंगिमाओं व मुद्राओं का आभास देते हैं, वह मानों समय के लिए हैं | समय जो 'अतीत' है, 'वर्तमान' है और 'अनागत' है | वीणा के चित्र रूप प्रायः सरलीकृत हैं - यह 'सरलीकरण' किसी कलाकार में एक दुहराव में भी बदल जा सकता था, लेकिन वीणा के यहाँ यह दुहराव में न बदल कर हर बार एक नये विस्मय में बदल जाता है | हम हर बार अनुभव करते हैं कि हम ने जो पहले देखा था, वह इससे मिलता जुलता तो था लेकिन ठीक ऐसा ही नहीं था | लेकिन ठीक वैसा न लगने में 'ही' उनकी कला की सार्थकता नहीं है - वह तो इसी बात में है कि वह हर बार अपने को एक भिन्न तरीके से सार्थक करती है | इसी सार्थकता के कारण उनमें एक लगाव हमेशा महसूस किया जा सकता है |
वीणा के चित्रों में मानव आकृति की उपस्थिति न होने के बावजूद उनमें एक 'मानवीय उपस्थिति' को पहचाना/महसूस किया जा सकता है | उनके चित्रों में दरअसल एक वातावरण है जो चौतरफा व्याप्त रहा है | यहीं यह भी याद कर लें कि प्रकाश के रूप में रंग या रंग के रूप में प्रकाश की बात अपने में कोई नई बात नहीं है, लेकिन वीणा के चित्रों में वह एक ताजगी और अपनी ही एक जरूरत से है | वीणा की चित्रभाषा पर भी गौर करें - उनकी रंग सामग्री कहीं घनी गाढ़ी है, तो कहीं वह इतनी तरल भी है कि पानी की चमकती सतह बन सके और कई बार बादलों जितनी भारहीन भी | ब्रश के स्पर्श या आघात, रंगों के निर्देश से 'विलग' नहीं हैं; अक्सर रंग ही हैं जो ब्रश की गतियाँ तय करते हैं | हम यह भी देखते हैं कि कई बार ब्रश की गतियाँ उनके कुछ चित्रों में रेखाओं की तरह हैं, ऐसी रेखाओं की तरह जो कुछ माप रही हैं |
शायद इसीलिए वीणा के चित्र मानसिक गतियों के दृश्यजगत का एक निचोड़ हैं, जो कुल मिला कर एक आत्मिक अनुभव में बदल जाते हैं | रंगों में यह निचोड़, रंगभाषा के बारे में हमारी संवेदना में बहुत कुछ जोड़ता है | दरअसल यहीं आकर हम यह भी पहचान सकते हैं कि वीणा के चित्रों ने हमारे ही रंगों के साथ हमारे मानसिक चाक्षुक बौद्धिक संबंध को उजागर किया है, और उनके रंग बोध के स्तर पर अपने समय के साथ चलने वाले भी सिद्ध हुए हैं; उन्होंने उनमें अर्थ भरे हैं और उनके साथ हमारे लिए एक संवाद की स्थिति पैदा की है |   
[जहाँगीर ऑर्ट गैलरी, मुंबई में 18 से 23 सितंबर 2012 के बीच 'स्केटर्ड मेमोरीज' (छितराई स्मृतियाँ) शीर्षक से आयोजित वीणा जैन की पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी के मौके पर प्रकाशित कैट्लॉग में भी इस आलेख को पढ़ा जा सकता है |]

Sunday, October 10, 2010

ऋतु चोपड़ा की पेंटिंग्स अभिव्यक्ति के स्तर पर कहीं कहीं इंस्टालेशन का-सा आभास देती हैं

ऋतु चोपड़ा की पेंटिंग्स की 'कहे कबीर' शीर्षक से नई दिल्ली की अपर्णा कौर एकेडमी ऑफ फाइन ऑर्ट्स एण्ड लिटरेचर की कला दीर्घा में 20 अक्टूबर से आयोजित हो रही एकल प्रदर्शनी ने एक फिर कबीर की प्रासंगिकता की जड़ों के गहरे तक धंसे / जमे होने को प्रकट किया है | उल्लेखनीय है कि कबीर की रचनाएँ काव्यत्व और कथ्य की दृष्टि से तो चुनौतीपूर्ण रही ही हैं, उनकी रचनाओं को किसी भी अन्य माध्यम में ट्रांसलेट करना तो और भी अधिक चुनौतीभरा रहा है | इसके बावजूद, विभिन्न माध्यमों के प्रख्यात लोगों ने कबीर की रचनाओं को अपने-अपने तरीके से देखने / परखने और संयोजित करने के प्रयास किए हैं | यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि रवींद्रनाथ टैगोर, लिंडा हेस, निनेल गफुरोवा, अली सरदार जाफ़री आदि ने कबीर के पदों को चुन चुन कर अपनी-अपनी भाषाओं में अनुदित किया है और कुमार गंधर्व जैसे महान गायक ने अपने तड़प भरे, आहाल्दक और प्राण उड़ेलने वाले स्वर में उन्हें गाया है | इसका कारण कबीर के संतत्व की विरलता की बजाए उनके कवित्व की विरलता में खोजा / पाया गया है | कबीर की इसी सृजन-शक्ति ने उन्हें वर्तमान में भी प्रासंगिक बनाए रखने में सर्वाधिक भूमिका निभाई है |
युवा चित्रकार ऋतु चोपड़ा द्वारा उनकी रचनाओं के संदर्भों पर आधारित पेंटिंग्स बनाना और प्रदर्शित करना उनकी प्रासंगिकता के बने रहने का ही एक उदाहरण है | वास्तव में कबीर के कवित्व ने ही उनके दर्शन को सर्वाधिक लोक-व्याप्ति और लोक-दृष्टि दी, जिसके चलते वह आज भी प्रासंगिक और चुनौती बने हुए हैं | अलौकिक, अमूर्त वस्तु को लौकिक, मूर्त वस्तु में बदलने की अप्रतिम क्षमता कबीर में थी और कविता के लिए यह सबसे अधिक आवश्यक भी है, क्योंकि स्वयं कविता लौकिक या ऐहिक वस्तु है | ऐहिक होकर ही वह ऐसी 'आँख' बनती है जो अपनी मर्मबेधिता से आर-पार देखती है और अपने छोटे से पटल पार वे सारे दृश्य अंकित करती है जो पाठक की आँख में परावर्तित होते हैं | पारदर्शिता आखिर कहते किसे हैं - जो प्रकाश के पीछे छिपे अँधेरे को या अँधेरे के पीछे छिपे प्रकाश को देख या दिखा सकती है | कबीर की रचनाओं को प्रासंगिक बनाए रखने में वास्तव में कबीर की मानवीय व जटिल द्वंद्वपूर्ण रचना-प्रक्रिया या बुनावट का है जो उनके काव्य में साँस की तरह चलती तो है, पर दिखाई नहीं देती   है | क्योंकि यह कविता ही नहीं उनका जीवन भी है जो एक जटिल बुनावट की कहानी है |
ऋतु चोपड़ा का कबीर से परिचय हालाँकि आबिदा परवीन की आवाज़ के ज़रिये हुआ; आबिदा परवीन की आवाज़ के जादू से प्रभावित होकर उन्होंने कबीर की साखी सुनना शुरू किया तो फिर कबीर उनकी आत्मा और उनकी सोच में रचते-बसते चले गये | कबीर का आत्मा और सोच में रचना-बसना उनके केनवस पर ट्रांसफर हुआ तो उनकी पेंटिग्स एक दर्शक के रूप में हमें व्यक्तिगत आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित करती हुई लगती हैं | कबीर की रचनाओं से प्रेरणा पाकर बनी-रची ऋतु की पेंटिंग्स देखते हुए हम ख़ुद को अपने अंदर देखते हुए पाते   हैं | कबीर की रचनाओं के प्रभावों और / या अर्थों को विविधतापूर्ण प्रतिरूप रचते हुए ऋतु चाक्षुक बिम्ब की भाषा में ढालती हैं | ऋतु की पेंटिंग्स में प्रकट होने वाली आकृतियाँ और वह परिदृश्य जिसमें वे स्थित हैं, किसी पूर्वस्मृति की आभा से दीप्त लगती हैं | पेंटिंग्स के फ्रेम में जो कहा गया बताया गया है या लगता है, कई बार हम अपने आप को उस फ्रेम से बाहर जाते हुए भी पाते हैं | ऋतु भले ही यह कह रहीं हों कि फलाँ पेंटिंग कबीर के फलाँ दोहे या साखी पर आधारित है, पर उनकी पेंटिंग में कबीर की सारी सोच और उनका सारा दर्शन प्रतिध्वनित हो रहा होता है | शायद यही कारण है कि ऋतु की पेंटिंग्स अभिव्यक्ति के स्तर पर कहीं कहीं इंस्टालेशन का-सा आभास देती हैं | उनकी पेंटिंग्स में - दूसरी, तीसरी, चौथी ....बार देखे जाने पर अनुभव स्थानांतरित होते जाते हैं, बदलते जाते हैं और वह जैसे एक फ्रेम में होने के बावजूद स्पेस में होने का आभास देते हैं |
ऋतु चोपड़ा को कला का संस्कार उज्जैन में   मिला | कला की उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की है, लेकिन कला के प्रति अपनी अभिरुचि को देखते हुए जब उन्हें लगा कि उन्हें कला के तकनीकी पक्ष से भी परिचित होना चाहिए तो कला की प्राथमिक शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए उन्होंने कला शिक्षक और कलाकार चंद्रशेखर काले से मार्गदर्शन प्राप्त   किया | इस बीच लिंडा हेस की पुस्तक 'सिंगिंग एम्प्टीनेस' उन्होंने पढ़ी, जिसने ऋतु को स्व से परिचित कराया | लिंडा हेस ने भारत के संत काव्य का विषद अध्ययन किया है और उनके उस विषद अध्ययन को देख / जान कर ऋतु ने जीवन और समाज को आध्यात्मिक नज़रिए से देखना / पहचानना शुरू किया | यह आध्यात्मिक नजरिया कब उनकी पेंटिंग्स में आ पहुँचा, और पेंटिंग्स में अभिव्यक्त होने वाले विषयों, विवरणों, रूपों व रंगों को निर्देशित व नियंत्रित करने लगा, यह ख़ुद उन्हें भी पता नहीं चला | उनके आध्यात्मिक नज़रिए में जो मानवीय पक्ष रहा, वह उन्हें कबीर के पास ले आया | कबीर के दोहे व साखियाँ वह प्रतिदिन रेडियो पर सुबह सुनती ही थीं | ऋतु की पेंटिंग्स के विषय अध्यात्म से जुड़े तो थे ही: लिहाजा धीरे-धीरे कबीर की रचनाओं ने उनके केनवस पर जगह बना ली | 1966 में जन्मी और उज्जैन जैसे कला व अध्यात्म से परिपूर्ण शहर में पली-बढीं ऋतु ने उज्जैन के अलावा देवास, इंदौर, जबलपुर, पुणे, मुंबई, नोएडा आदि में आयोजित समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | वह उज्जैन और दिल्ली में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनियाँ भी कर चुकीं हैं | इसी वर्ष मई व जुलाई के बीच अमेरिका के सनफ्रांसिस्को में आयोजित हुई एक बड़ी समूह प्रदर्शनी में भी उनकी पेंटिंग्स प्रदर्शित हुईं |
ऋतु चोपड़ा की अपर्णा कौर एकेडमी ऑफ फाइन ऑर्ट्स एण्ड लिटरेचर की कला दीर्घा में 20 अक्टूबर से आयोजित हो रही तीसरी एकल प्रदर्शनी उनकी कला-यात्रा के नए आयामों से परिचित होने का मौका तो हमें देगी ही, कबीर की रचनात्मक प्रासंगिकता का एक और उदाहरण व सुबूत भी प्रस्तुत करेगी |

Sunday, August 8, 2010

देविबा वाला की कला यथार्थ की नई पहचान तथा यथार्थ के प्रति नई दृष्टि का अनुभव कराती है

मास्को स्थित रूस के भव्य पैलेस म्यूजियम में अभी हाल ही में आयोजित 'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में देविबा वाला के काम को चुने जाने की जानकारी ने मुझे इस कारण से खासा रोमांचित किया क्योंकि देविबा की कलाकृतियों को मैंने उस साधक की तरह देखा/पहचाना है जो कुछ भी एप्रोप्रियेट नहीं करता | एप्रोप्रियेट करना जैसे उनका धर्म ही नहीं है | उनका धर्म जैसे अज्ञात की खोज है, उस अज्ञात की जिसके बारे में कोई भी न सचेत है और न उत्सुक | और इसीलिए वह किसी चीज़ को, किसी अनुभव को डिस्कवर नहीं करतीं; वह उस अनुभव को रोशनी में लाती हैं जो अब तक अँधेरे में छिपा था | देविबा ने अपने चित्रों के बारे में ख़ुद भी कहा है कि वह कुछ कहते नहीं हैं, बल्कि देखने वाले को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं | क्या सोचने के लिए प्रेरित करते हैं ? इसका जबाव न देविबा देती हैं, और न उनके चित्र | वास्तव में यही वह 'बात' है जो उनके काम को खास बनाती है | उनका काम एक पहेली से हमारा सामना कराता है : कभी हमने सोचा है, हम कहाँ होते हैं जब हम सोच रहे होते हैं ? बहुत सोच-विचार के बाद भी हम ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते हैं कि वह चुप्पी की जगह होती है, मौन का एक ठौर जहाँ बहुत से ख्यालों, बहुत सी स्मृतियों, बहुत से दिवास्वप्नों की आवाजाही होती रहती है; और हम अतीत-वर्तमान-भविष्य के भंवर में गोते लगते रहते हैं | वह है क्या या वहाँ होता क्या है, इसका सीधा-सपाट जबाव देने में हमें यदि उलझन होती है तो इसलिए क्योंकि हम तर्कशील मानसिकता में जकड़े होते हैं जो हमें अनुभव को अलग-अलग रूपों में देखने के लिए तैयार करती है | देविबा का काम हमें इस तर्कशील मानसिकता की जकड़न से बाहर आने को प्रेरित करता है | हम यदि उस जकड़न से बाहर आ पायेंगे, तभी देविबा के काम के सामने खड़े रह पायेंगे, अन्यथा उन पर एक उचटती सी नज़र डाल कर आगे बढ़ जायेंगे | 
 'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में देविबा वाला के साथ भारत के 11 और जिन युवा कलाकारों के काम को चुना गया, उनमें एक अर्पित बिलोरिया के काम से मैं परिचित रहा हूँ | इसे मैं अपना दुर्भाग्य ही मानूँगा कि बाकी 10 कलाकारों की कृतियों से मेरा परिचय नहीं है | मास्को बिनाले के लिए 35 देशों से आईं 2500 कलाकृतियों में भारत के जिन 12 युवा कलाकारों की 40 कृतियों को चुना गया, उनमें देविबा वाला और अर्पित बिलोरिया के साथ अजय राजपुरोहित, हितेंद्र भाटी, सुकेशन कंका, पद्मिनी मेहता, संजय सोनी, शरद भारद्वाज, सैयद अकबर अली, तेजसिंह जोसेफ, उमेश प्रसाद तथा विपुल प्रजापति के काम मास्को स्थित रूस के भव्य पैलेस म्यूजियम में सुशोभित हुए | मास्को बिनाले में देविबा के काम को चुने जाने को एक उदाहरण के रूप में देखते हुए मैं वहाँ प्रदर्शित काम की प्रखरता तथा स्तरीयता का आश्वस्त करने योग्य अनुमान लगा सकता हूँ |
देविबा वाला के काम के प्रति मेरी दिलचस्पी और आश्वस्ति का एक प्रमुख कारण यह रहा कि उनके काम को जब जब भी देखने का मौका मिला, मैंने अपनी सोच में अस्तित्व को एक अनूठे रूप में प्रस्फुठित होते हुए पाया | देविबा के चित्रों में 'अस्तित्व' की जो झलक 'दिखती' है उसे ज्ञान से एक्ज़्हास्ट करने की कोई कोशिश चित्रों में नहीं नज़र आती है, बल्कि उनमें एक रहस्य जैसा दिखता है | मुझे लगता है कि 'ज्ञान' यदि उनमें होता तो एक तरह के एपोरिया का अनुभव करता | देविबा ने जिस तरह से अपने चित्रों को आकार दिए हैं, उनमें ज्ञान असंभव ही होता और वह एक तरह की इनएक्सेसिबिलिटी का ही अनुभव करता | देविबा के चित्रों में मुझे अनुभूति ज्ञान की जगह लेती हुई नज़र आती है जो अपने आप में बुनियादी तौर पर अधूरापन महसूस कराती है | अनुभूति की अर्हता इसी बात में है कि अनुभूति के क्षण में हमें अपना समस्त ज्ञान अधूरा लगने लगता है | दरअसल इसी कारण देविबा की पेंटिंग्स मुझे एक चुनौती की तरह लगती हैं और मैं बार-बार उनके सामने आने को प्रेरित होता हूँ |

देविबा ने जो यह ख़ुद माना/कहा है कि उनके चित्र देखने वाले को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं, उसे लेकर मेरा अनुमान है कि उनका आशय थिंकिंग के फॉर्मलाइज्ड थिंकिंग में बदलने से नहीं होगा; क्योंकि वह चीज़ अनुभव में सोच की प्रक्रिया को वाधित करती है | अनुभव में सोच का अर्थ मेरे लिए यह है कि अनुभव करते हुए ही रिफ्लेक्ट करना कि मैं क्या कर रहा हूँ | एकदम शुरू में हो सकता है कि रिफ्लेक्शन साफ-साफ न हो सके, चीज़ों को हम बहुत कुछ इंट्यूटिवली एप्रिहेंड करते हैं, दो और दो चार के लगे-बंधे नियम के आधार पर नहीं करते | कल्पना अपनी छलांग के बीच के रास्ते को लाँघ जाती है | यह विज्ञान में भी होता है, और कला में भी | मुझे लगता है कि ये सब चीज़ें हमारे जीवन में महत्त्व रखती हैं, जिसका अहसास देविबा की कला कराती है | जीवन को प्रभावित करने वाली चीजों को, यानि यथार्थ को जानने/पहचानने के लिए किए गए प्रयत्नों में पाया गया कि यथार्थ की तद्भव पहचान संभव नहीं है | माना गया है कि हम जिस किसी भी माध्यम से यथार्थ को पहचानने का उपक्रम करते हैं उस माध्यम का होना ही यथार्थ के हमारे ग्रहण को, हमारी पहचान को अनिवार्यतः प्रभावित करता है |

देविबा के चित्रों का संदर्भ ले कर मैं कहना चाहूँगा कि उनमें हम जो कुछ जान या अनुभव कर पाते हैं वह कोई निरपेक्ष यथार्थ नहीं, हमारे माध्यम की प्रकृति से रूपांतरित यथार्थ होता है | दूसरे शब्दों में, यथार्थ की पहचान की हमारी प्रक्रिया ही हमारा यथार्थ हो जाती है; बल्कि तब वह यथार्थ की पहचान की नहीं, यथार्थ के सृजन की प्रक्रिया हो जाती है और हम उसी का संप्रेषण कर रहे होते हैं | देविबा के काम को जब-जब भी देखने का मौका मिला, तब-तब मैंने महसूस किया कि जैसे जब भी हम यथार्थ की कोंई नई पहचान, यथार्थ के प्रति किसी नई दृष्टि का अनुभव करते हैं तो वास्तव में समूचे यथार्थ का, यथार्थ के हमारे समूचे बोध का नया सृजन कर रहे होते हैं | इसीलिए देविबा की कृतियों से साक्षात्कार के बाद हम वही नहीं रह जाते, हमारा बोध वही नहीं रह जाता - और हम क्या हैं सिवा इस बोध के - जो पहले था ? अपने परिवेश सहित हम नये सिरे से रचे गए हो जाते हैं | देविबा की कला सिर्फ एक कलागत प्रयोग नहीं रह जाती; बल्कि वह हमारी संपूर्ण कला-दृष्टि, कहना चाहिए कि कला के माध्यम से हमारे संपूर्ण यथार्थ-बोध की नयी रचना कर देती है | इसीलिए देविबा की कला एक दर्शक के रूप में हमें आश्वस्त भी करती है और हमारे सामने चुनौती भी प्रस्तुत करती है |
[ आलेख के साथ दिए गये चित्र
'मास्को इंटरनेश्नल यंग ऑर्ट बिनाले 2010' में प्रदर्शित देविबा वाला की पेंटिंग्स के हैं | ]

Monday, June 21, 2010

जन्मदिन के मौके पर, जगदीश स्वामीनाथन को याद करते हुए

आज का मेरा दिन प्रखर चित्रकार और बुद्विजीवी जगदीश स्वामीनाथन के नाम रहा | यह याद करते हुए कि आज स्वामीनाथन का जन्मदिन है, मैंने आज का दिन विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा इंटरनेट पर उपलब्ध स्वामीनाथन की पेंटिंग्स के चित्रों को देखते हुए और उनके बारे में छपी/लिखी सामग्री को पढ़ते हुए बिताया | स्वामीनाथन का जन्म वर्ष 1928 में आज के ही दिन शिमला में बसे एक तमिल परिवार में हुआ था | यह जान कर मुझे किंचित हैरानी भी हुई कि चित्रकला में उनकी दिलचस्पी यूँ तो बचपन से ही थी, लेकिन इसे गंभीरता से उन्होंने बहुत बाद में अपनाया | गंभीरता से उन्होंने पहला काम दिल्ली के हिंदू कॉलिज से प्री-मेडीकल की पढ़ाई का किया, पर इसमें ज्यादा दिन उनका मन नहीं लगा | पढ़ाई के दौरान ही राजनीति में उनका रुझान पैदा हुआ | राजनीतिक जीवन की शुरूआत उन्होंने कांग्रेस सोशलिष्ट पार्टी से की और फिर कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हुए | राजनीतिक जीवन में ही उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में पत्रकारिता भी की और बच्चों के लिये कहानियां भी लिखीं | राजनीति से मोहभंग होने के बाद उन्होंने चित्रकला की तरफ कदम बढ़ाया और गंभीरतापूर्वक चित्रकला में रम गये | चित्रकला अपनाने के दौरान उन्होंने कुछ समय हालाँकि पत्रकारिता भी की और काफी कविताएँ भी लिखीं, लेकिन उनकी सक्रियता का मुख्य केंद्र चित्रकला ही रही | चित्रकला संसार में स्वामीनाथन की सक्रियता एक विचारोत्तेजक और उत्कट घटना की तरह देखी/पहचानी गई | जगदीश स्वामीनाथन के जन्मदिन के मौके पर आज उनकी रचनाओं से आमना-सामना करते हुए मैं उनकी 'दूसरा पहाड़' शीर्षक कविता को बार-बार याद करता रहा जो करीब तीस वर्ष पहले लिखी तथा प्रकाशित हुई थी | यहाँ मैं उनकी इस 'दूसरा पहाड़' शीर्षक कविता को दोहराना चाहूँगा :
यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखाई नहीं देता
धार धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी कभी जैसे
यह पहाड़
धुंध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौट कर ऐसे थिर हो जाता है
मानों कहीं गया ही न हो
- देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूंछ हिलाते डंगर
ज्यों के त्यों बने हैं, ठूँठ सा बैठा है चरवाहा 
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुंध में लुपका है, उबर जायेगा
अजी जरा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुंध न कोहरा न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बदल की फुही
वह पहाड़ दिखायी नहीं देता महाराज
उस पहाड़ में गूजरों का एक पड़ाव है
वह भी दिखाई नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उन के मवेशी न झवड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अंगारों सा धधकती हैं

इस पहाड़ के पीछे जो वादी है न महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाये बैठा है

Monday, May 31, 2010

अमी चरणसिंह का मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त हुए भाषा के परे के बिम्बों व छवियों के चित्रांकन के लिये प्रेरित होना उत्साह भी जगाता है और आश्वस्त भी करता है

अमी चरणसिंह तीन सीरीज़ में मुक्तिबोध की कविता 'मुझे क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं' को लेकर जो चित्र-रचना कर रहे हैं, उसके कुछेक चित्र अभी हाल ही में देखने को मिले तो मुझे बरबस ही कला-रूपों के अंतर्संबंधों पर महादेवी वर्मा की 'दीपशिखा' की भूमिका याद आ गई जिसमें उन्होंने लिखा था कि 'कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वस्त सहयोगी होने की क्षमता रखता   है |' इस क्षमता के बावजूद, हालाँकि आधुनिक कविता और चित्रकला के बीच रिश्ता पिछले वर्षों में कमजोर पड़ता गया है | ऐसे में अमी चरणसिंह का मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त हुए भाषा के परे के बिम्बों व छवियों के चित्रांकन के लिये प्रेरित होना उत्साह भी जगाता है और आश्वस्त भी करता है | अमी चरणसिंह पिछले करीब तीन वर्ष से भारत के एक महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की उक्त कविता को विभिन्न रूपों में चित्रित कर रहे हैं | पहले उन्होंने पेपर पर दो-एक रंगों में एक्रिलिक से काम किया, फिर कई रंगों में काम किया और हाल ही में उन्होंने पेपर पर ऑयल से उक्त कविता को 'देखा' | अमी चरणसिंह ख़ुद भी कविताएँ लिखते हैं और उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं हैं |
अमी चरणसिंह ने चित्र-रचना और कविता लिखने का काम अपने जीवन में हालाँकि देर से शुरू किया - इतनी देर से कि उनके कॉलिज के साथियों को हैरान होकर उनसे पूछना पड़ा कि 'यह' सब कब हुआ ? कला की दुनिया में अमी चरणसिंह की सक्रियता कला समीक्षक के तौर पर शुरू हुई थी | हालाँकि इससे पहले, कॉलिज के दिनों में उन्होंने प्रसिद्व चित्रकार भाऊ समर्थ पर एक किताब का संपादन किया था | कला प्रदर्शनियों के साथ-साथ उन्होंने फिल्मों पर भी समीक्षात्मक रिपोर्ट्स लिखीं; और फिर वह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने लगे | उन्होंने कला और कलाकारों पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाईं | यही सब करते हुए वह कब चित्र बनाने लगे, यह दूसरों को तो क्या शायद उन्हें भी पता नहीं चला | जब 'पता' चला तब उन्होंने चित्र-रचना के काम को गंभीरता से लेना शुरू किया | मध्य प्रदेश के विभिन्न शहरों में आयोजित प्रदर्शनियों में अपने चित्रों को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उन्होंने दिल्ली व मुंबई में भी अपने चित्रों को प्रदर्शित किया है | मुक्तिबोध की कविता पर अमी चरणसिंह ने जो चित्र बनाए हैं उनमें चित्रकला की जटिल शास्त्रीयता भी है, और इसीलिए यह उल्लेखनीय भी हैं | मुक्तिबोध की कविताओं पर फिल्में भी बन चुकीं हैं, जिन्हें प्रसिद्व फिल्म निर्माता मणि कौल ने संभव किया था | ज़ाहिर है कि मुक्तिबोध की कविताएँ दूसरे कला माध्यमों में काम करने वाले कलाकारों के लिये प्रेरणा और चुनौती की तरह रहीं हैं | अमी चरणसिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया और निभाया, तो यह कला के प्रति उनकी प्रतिबद्वता का सुबूत भी है | 
अमी चरणसिंह ने कला के प्रति अपनी प्रतिबद्वता का सुबूत प्रस्तुत करते हुए वास्तव में हिंदी की कला-चिंतन की उस समृद्व परंपरा को ही निभाने की कोशिश की है, जिसके तहत अनेक कवि-कथाकारों ने चित्रकला में भी अपनी सक्रियता रखी और दिखाई है | महादेवी वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, जगदीश गुप्त, रामकुमार, लक्ष्मीकांत वर्मा, चंद्रकांत देवताले, विपिन अग्रवाल, विजेंद्र, नरेन्द्र जैन आदि कुछ नाम तुरंत याद आ रहे हैं - नाम और भी हैं तथा इस सूची को और बढाया जा सकता है | मकबूल फ़िदा हुसैन, गुलाम मोहम्मद शेख, जगदीश स्वामीनाथन, जय झरोटिया जैसे मशहूर चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं | मुझे याद आया कि ऑल इंडिया फाइन ऑर्ट एण्ड क्रॉफ्ट सोसायटी (आइफैक्स) ने कई वर्ष पहले कविता लिखने वाले चित्रकारों के काव्यपाठ का कार्यक्रम आयोजित किया था | कवियों द्वारा चित्रकारों और या उनके चित्रों पर कविताएँ लिखने के तो असंख्य उदाहरण मिल जायेंगे | इसका उल्टा भी खूब हुआ है | चित्रकारों ने कविताओं को केनवस पर उतारने में भी काफी दिलचस्पी ली हैं | कालिदास की प्रसिद्व काव्य-कृति 'मेघदूत' चित्रकारों को शुरू से ही आकर्षित करती रही है | 'बिहारी सतसई' ने अनेक चित्रकारों को अपनी ओर आकर्षित किया | यहाँ यह याद करना भी प्रासंगिक होगा कि पिकासो से कवियों के कितने गहरे रिश्ते थे और नये काव्यान्दोलनों को जन्म देने में उसके अभिनव प्रयोगों की क्या भूमिका थी | गुलाम मोहम्मद शेख ने कविताएँ तो लिखी हीं, कबीर की कविताओं पर एक पूरी श्रृंखला भी बनाई थी | विवान सुन्दरम ने कई कविताओं पर पेंटिंग्स बनाई हैं | जय झरोटिया ने सौमित्र मोहन की 'लुकमान अली' कविता पर एक पूरी श्रृंखला बनाई थी | अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्त करने के लिये शब्दों के अतिरिक्त रंगों और रेखाओं का सहारा लेने का उपक्रम सिर्फ हिंदी के लेखकों ने ही नहीं किया है, बल्कि अन्य भाषों के लेखकों के बीच भी इस तरह के उदाहरण मिल जायेंगे | यहाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर को याद करना प्रासंगिक होगा | फ्रांसीसी कवि एपोलिनेयर और आंद्रे ब्रेतों ने तो अपने समय के प्रसिद्व अतियथार्थवादी (सुर्रियलिस्ट) कला-आंदोलन में खासी सक्रियता दिखाई थी |
कविता, भाषा और मानवीय अनुभवों की प्रतीकात्मक दुनिया है | चित्रकला इस प्रतीकात्मक दुनिया को चाक्षुषता से जोड़ कर दृश्य में रूपांतरित करते हुए प्रभावोत्पादक ढंग से अधिक स्पष्ट और सम्प्रेषणीय बना सकती है | कविता शब्दों का संसार अवश्य है; किंतु साहित्य में कविता ही ऐसी विधा है जिसमें शब्दों का अतिरिक्त अर्थ बहुत अधिक होता है | वह अनुभव, यथार्थ, स्मृति, कल्पना और स्वप्नों की सांकेतिक बुनावट के साथ ही द्वंद्व, तनाव, व्यंग्य और यातना की विस्फोटक दुनिया भी है | चित्र में उसे साधना स्वाभाविक रूप से एक बड़ी चुनौती है - तब तो और भी जबकि कवि-कर्म और चित्र-रचना दोनों ही व्यक्तिगत साधना की चीज़    हैं | भले ही - जैसा कि महादेवी वर्मा ने कहा है कि - 'कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वस्त सहयोगी होने की क्षमता रखता है', लेकिन फिर भी उनमें एक के दूसरे पर प्रभाव तलाशने की कोशिश फिजूल की बात ही समझी जाती है | कवि-कर्म और चित्र-रचना एक दूसरे को प्रभावित और प्रेरित तो करते हैं तथा उनमें संबंध भी होता है; लेकिन कविता कविता का काम करती है, और चित्र चित्र का | दोनों का काम और प्रभाव अलग-अलग ही होगा | इसीलिए मुक्तिबोध की कविता पर बनाए गये अमी चरणसिंह के चित्रों को देखते हुए मैं उनमें मुक्तिबोध की कविता को नहीं अमी चरणसिंह की रचनात्मकता को समझने / पहचानने की कोशिश करता हूँ - ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान यूँ भी मुक्तिबोध के ही दिये गये पद हैं |
मध्यकाल के बाद और खासतौर से उत्तर मध्यकाल के बाद चित्रकला व कविता के बीच जो प्रभावपरक रिश्ता बना था वह आधुनिक परिवेश में किसी नवोत्थान के साथ आगे नहीं बढ़ सका और धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया | उक्त रिश्ता कमजोर जरूर पड़ गया है, पर पूरी तरह बिसरा नहीं है; और उस रिश्ते को नये रूप में खोजने / बनाने के प्रयास भी जारी दिखते ही हैं | ऐसे में, मुक्तिबोध की कविताओं पर अमी चरणसिंह का सीरीज़ में काम करना - मैं फिर दोहराना चाहूँगा कि - आश्वस्त करता  है |

Tuesday, May 11, 2010

पारुल की चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है

त्रिवेणी कला दीर्घा में 28 मई से शुरू हो रही पारुल आर्य के चित्रों की 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक एकल प्रदर्शनी में व्यक्ति के विश्वास के विविधतापूर्ण रूपों की अभिव्यक्ति को देखा जा सकेगा | पारुल के चित्रों की यह चौथी एकल प्रदर्शनी है, जो करीब तीन वर्ष बाद हो रही है | इससे पहले, सितंबर 2007 में 'नेचर' शीर्षक से उनके चित्रों की तीसरी एकल प्रदर्शनी हुई थी | उससे पहले, वर्ष 2006 तथा वर्ष 2004 में क्रमशः 'एक्सप्रेशंस' तथा 'सिटी स्पेस' शीर्षक से उन्होंने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी की थी | इस बीच अमेरिका के कोलंबिया में पोर्टफोलिओ आर्ट गैलरी में भी कला प्रेक्षकों व दर्शकों को उन्होंने अपने चित्रों को दिखाया है | 'ह्युमनिटी चैलेंजेड' शीर्षक से नई दिल्ली की ललित कला अकादमी की कला दीर्घा में आयोजित हुई एक समूह प्रदर्शनी में भी पारुल ने अपने चित्रों को प्रदर्शित किया था | पारुल को अपनी कला प्रतिभा को निखारने तथा उसे वैचारिक स्वरूप प्रदान करने का मौका उस समय मिला, जब उन्होंने नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविधालय से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया | कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के साथ पारुल ने अपनी जिस कला-यात्रा को समकालीन कला जगत में विधिवत रूप से शुरू किया, उसमें उन्होंने प्रायः एक दार्शनिक भावभूमि पर खड़े होकर ही अपने चित्रों की रचना की है | पारुल आर्यकी सिटी स्पेस श्रृंखला की 'सिटी ऑफ कलर्स', 'पर्पल हेज', 'रिफ्लेक्शन ऑफ नाईट', 'इन द लैंपलाइट' शीर्षक चित्रकृतियाँ तथा ह्युमनिटी चैलेंजेड श्रृंखला की 'द सर्च', 'इयरिंग', 'माई इंसपिरेशन', 'होप' शीर्षक चित्रकृतियाँ न केवल अपनी अंतर्वस्तु में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं, बल्कि फॉर्म में भी महत्त्वपूर्ण हैं |
इनके अलावा 'डिवोशन', 'वाइल्ड फैंटेसी', 'सन एण्ड लीव्स', 'ए ट्री बाय माई विंडो' शीर्षक चित्रकृतियों में भी गंभीर दार्शनिक विमर्शों को पारुल ने जिस तरह चित्रित किया है, उसके चलते ही उन्हें युवा कलाकारों के बीच एक अलग पहचान मिली है | 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक की चित्रकृतियों में जीवन के द्वैत को बखूबी दर्शाया गया है | जीवन के द्वंद्वात्मक स्वरूप को चित्रित करती ये कलाकृतियाँ पारुल की रचनात्मकता के एक नये आयाम से हमारा परिचय कराती हैं | इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है | उनकी कला यात्रा के इस चरण की चित्रकृतियों का चरित्र रूपकालंकारिक तो है ही, साथ ही वह रेटॉरिकल भी है | पारुल की पेंटिंग्स से गुज़रना अपने आस-पास की दुनिया को अपने भीतर जगह बनाते हुए महसूस करते गुज़रने जैसा है, और इस तरह एक अलग अनुभव देता है | यूं तो प्रत्येक कलाकार के लिये यह अभीष्ट है कि वह अपनी विशिष्टताओं और सृजन शैली के माध्यम से एक भिन्न तरह की कला का सृजन      करे | वास्तव में यह सचमुच की जीती जागती दुनिया का ही कलात्मक प्रत्याख्यान होता है जिसमें उस कलाकार की अपनी जीवन-दृष्टि, संवेदना और अनुभव समाहित होते हैं |
पारुल के कुछेक काम एक चेहरे के इर्द-गिर्द हैं - अपने रूपों, विरूपणों और विकृतियों में व्यक्त होता एक मानवीय चेहरा | लेकिन उनके कई कामों में मानवीय चेहरे या आकृतियों के साथ वाहय-जगत की उपस्थिती भी दिखती है | यह वाहय-जगत कभी व्यक्ति (चेहरे) के कंट्रास्ट में है, कभी द्वंद्व में तो कभी सहयोजन में | व्यक्ति के आभ्यंतर और वहिर्जगत का संबंध पारुल के चित्रों में अनेक रूपाकारों में तो दर्ज है ही, उसे उनके अमूर्त चित्रों में भी पहचाना जा सकता है | पारुल के चित्रों का प्रतिसंसार एक ओर मनुष्य के अंतर्जगत की उथल-पुथल को रूपायित करता है, तो दूसरी ओर व्यक्ति को बाहय-परिवेश से द्वंद्वरत दिखाता है | पारुल के चित्रों की विवरण-बहुलता एक खास अर्थवत्ता रखती है और इसी कारण से हमें हमारे विश्वासों और हमारे आसपास की स्थितियों के प्रति सोचने-विचारने के लिये प्रेरित करती है |
28 मई से नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में शुरू हो रही 'अ मैटर ऑफ फेथ' शीर्षक एकल प्रदर्शनी में पारुल आर्य के चित्रों को 6 जून तक देखा जा सकेगा |