Wednesday, October 14, 2009

जल सोचता है, अनुभव करता है और अभिव्यक्त भी करता है

गोवा-मुंबई की हाल की यात्रा में समुद्रों में जल का जो इंद्रधनुषी रूप देखने को मिला, उससे एकबार फिर यह समझ में आया कि जल को क्यों ऋषियों ने 'आपो ज्योति रसोsमृतम्' यानि ज्योति, रस और अमृत कहा था; और जल क्यों स्वभाव की निर्मलता और पारदर्शिता के उपमान के साथ-साथ स्वच्छंदता और विद्रोह के प्रतीक के रूप में भी देखा/पहचाना गया है; और क्यों जल के पवित्र रूप - उसमें निहित आध्यात्मिकता, प्रेम, सौन्दर्य, क्रीड़ा और सहजता को दुनिया की विभिन्न कलाओं में सृजनात्मक अभिव्यक्ति मिली है | जापान के शोधकर्ता डॉक्टर मसारू ईमोटो की खोज के बारे में पिछले दिनों जब पढ़ा था कि जल में प्राण, मन व मस्तिष्क है; वह सोचता है, संवेगित होता है और अभिव्यक्त भी करता है तो सहसा विश्वास नहीं हुआ था | गोवा-मुंबई में लेकिन डॉक्टर मसारू ईमोटो की बात समझ में भी आई और सच भी लगी | समुद्र इससे पहले हालांकि कन्याकुमारी और चेन्नई में भी देखे हैं, और 'जल ही जीवन है' से पहले भी सहमत रहा हूँ - लेकिन गोवा-मुंबई में जल और जीवन के रिश्ते की व्यापकता को पहली बार समझा   है |   
वैदिक वांग्मय में, उपनिषदों में और भारतीय दर्शन की शाखाओं में जल को सृष्टि के एक महत्वपूर्ण पदार्थ के रूप में सर्वत्र वर्णित और परिभाषित किया गया है | वैदिक वांग्मय में सृष्टि विज्ञान  का विवेचन करते हुए जल को सृष्टि के उदगम अर्थात विसृष्टि की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण उपादान के रूप में बताया गया है जबकि सृष्टि के बाद पंचभूतों में से एक भूत के रूप में उसका जो स्थान है उसका विवेचन सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि सभी दर्शनों में विस्तार से हुआ है | जहाँ गोपथ ब्राह्मण ने उसका सृष्टि के उपादान के रूप में वर्णन करते हुए उसे भृगु और अंगिरा के संघात के रूप में आदिम तत्त्व की तरह विवेचित किया है, वहीं दर्शनों ने उसे केवल द्रव्य या पदार्थ माना है |
सांख्य आदि दर्शनों ने सृष्टि के उदगम की जो प्रक्रिया बताई है, उसके अनुसार अव्याकृत कारण ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई फिर महत्त्व, फिर अहंकार, फिर पंचतन्मात्रा और फिर पंचभूत व इन्द्रिय | पंचभूतों में जो जल है वह द्रव्य है | जबकि आदिसृष्टि के रूप में जिस जल का उल्लेख किया गया है वह सूक्ष्म तत्त्व है जिसमें सुनहरा अंडा या कॉस्मिक ऐग पैदा होता है | उस अंडे को हिरण्यगर्भ भी कहा गया है | चूंकि सारी सृष्टि उस अंडे से पैदा हुई है अतः उसी में पंचभूतों की उत्पत्ति भी आ जाती है | इससे पूर्व जो प्रथम अप् तत्त्व था, जिसमें ब्रह्मा ने बीज बोया वह सूक्ष्म तत्त्व के रूप में पहली सृष्टि कहा ही जा सकता है | यही रहस्य है जल को अवेग सृष्टि कहने का तथा समस्त जगत के जलमय होने का |
तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि ने जब जल को ही अन्न कहा, तो निश्चित रूप से उसके मन में केवल तत्त्व-चिंतन ही था | जल को एक व्यापक भूमिका देकर वह कहता है - आपो वा अन्नम्  |  ज्योतिरन्नादम्  |  अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्  |  ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिता |     ( यानि जल ही अन्न है, ज्योति आनंद है | जल में ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योति में     जल | ) गीता में यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न का उल्लेख है | इस प्रकार जल ही वह तत्त्व है जो धुलोक से पाताल तक व्याप्त है और अन्य तत्त्वों के शोषक रूप को प्रशमित करता है |
स्पष्ट है कि जल सिर्फ पानी नहीं है | वह रस है | सृष्टि में जो भी सौन्दर्य है, कान्ति है, दीप्ति है - वह इसी रसमयता के कारण है | स्थूल जल से शरीर का पोषण होता है और रस से आत्मा का | मनुष्य की कान्ति, पुष्प के पराग, वृक्ष की छाल में रस ही विधमान है | इस रस का सूखना मृत्यु की ओर बढ़ना है | इसीलिए शास्त्रों में रसमयता पर बल दिया गया है | जो रसमय होगा, वही जलमय होगा | भारतीय मनीषियों ने इसीलिए कहा है कि किसी को जल से वंचित नहीं करना चाहिए -
                         तृषितोमोहमायाती मोहात्प्राणं विमुच्यती |
                         अतः सर्वास्ववस्थासु न व्कचिद्वारिवारयेत् ||
जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है | मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है | सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अंतिम लक्ष्य है | जब रहीम 'बिन पानी सब सून' कहते हैं तो उनका आशय किसी के तिरस्कार व अपमान के निषेध से भी है | पानी न देना और किसी का पानी उतर लेना - दोनों ही मानवता के विरूद्व है क्योंकि सब की सत्ता जल में है | ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है | सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं | इसीलिए कहा गया है -  सर्वमापोमयं जगत् |

शायद यही कारण हो कि जल के अनंत रूपों ने मानव मन को अजाने काल से ही मोहित किया हुआ है | कलाकार तो जल के विविधतापूर्ण रूपों के साथ कुछ ज्यादा ही संलिप्त रहे हैं | अजंता की गुफाओं के भित्ति-चित्रों के चितेरे हों या जैन, मुग़ल, राजपूत और पहाड़ी शैली के चित्रकार हों और या समकालीन कला के प्रयोगधर्मी कलाकार हों - सभी ने जल के अलग-अलग रूपों को अपनी-अपनी तूलिकाओं से सृजित किया है, क्योंकि वही तो सृष्टि का एकमात्र 'आदि-तत्त्व' है | गोवा में समुद्र के किनारे घूमते और उन किनारों पर बसी 'दुनिया' को देखते/समझते हुए इस सच्चाई से एकबार फिर सामना हुआ | गोवा-मुंबई में विश्वास हुआ कि जल जैसे सोचता भी है, अनुभव भी करता है और अभिव्यक्त भी करता है | जल के सोचने, अनुभव व अभिव्यक्त करने की कुछ बानगियां मैंने अपने कैमरे में भी कैद की हैं, जिनमें से कुछ यहां आप भी देख सकते हैं |








2 comments:

  1. The indecisive moment, in your photograph, capturing 'the extraordinary in ordinary situations'. your lens frames for us that heartbeat in which life throbs, blink and we miss it. It is not always about the perfect moment; rather, it is about leaving scope to the imagination of the viewer and giving photography an edge as an art form by going more towards the abstract and the unseen, moments that have something to narrate and something to contemplate.

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  2. Overwhelmed, how unique your vision. Photography has gone beyond its traditional perception as a mere recorder of history and memory and established itself as a distinct art form. Indian photographers have gained much visibility in the national and international scene and their works are being conserved and documented extensively.

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