Wednesday, February 24, 2010

रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स जीवन के शाश्वत संदर्भों की पड़ताल का मौका देती हैं

रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स विस्मित तो करती ही हैं, पेंटिंग्स में विविधतापूर्ण रचना सामग्रियों के इस्तेमाल के सवाल की तरफ भी ध्यान खींचतीं हैं | उनकी कुछेक नई पेंटिंग्स म्यूरल का-सा आभास देती हैं, तो उनकी पिछली कुछेक पेंटिंग्स को 'बुना हुआ' पाया गया था | विविधतापूर्ण रचना सामग्रियों का इस्तेमाल करते हुए रुचि गोयल कौरा  ने चित्रों का अपना ही एक वास्तुशिल्प बनाया है, अपना ही एक स्ट्रक्चर - जो अनुभवों, स्मृतियों, भावों और मनःस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेता है | रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स में प्रकट हुईं रंग - रूप - रेखाएं, स्मृति और स्वप्न को आंतरिक अनुभव से जोड़ते हुए एक स्वप्नलोक-सा रचती हैं | स्मृतियों को खंगालते रहने में और स्मृतियों की ओर लौटते-लौटते उनमें 'जा बसने' में रुचि की खास दिलचस्पी    है | इस बात का सुबूत यह तथ्य भी है कि दो वर्ष पहले - जब वह नॉटिंघम में थीं - उन्होंने 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' शीर्षक से एक ब्लॉग बनाया था और उसकी कई पोस्ट्स लिखी थीं | नॉटिंघम वह अपनी पढ़ाई के सिलसिले में गईं थीं | रुचि गोयल कौरा ने नॉटिंघम ट्रेंट यूनीवर्सिटी से टेक्सटाइल डिजाइन एण्ड इनोवेशन में मास्टर्स किया है | इससे पहले उन्होंने निफ्ट से फैशन डिजाइनिंग में डिप्लोमा किया था |
रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स देखते हुए मुझे सहसा काफी पहले पढ़ी 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' की पोस्ट्स याद आ गईं | पेंटिंग्स को देखते हुए उन पोस्ट्स को याद करने के क्रम में मुझे लगा कि हमारे भीतर कहीं जैसे एक त्रास मौजूद रहता है - इतिहास और समय के प्रति त्रास | क्या हम मनुष्य के भीतर बहने वाली सृजन धारा को इतिहास के दावों और दबावों से मुक्त रख सकते हैं - या यह सिर्फ एक आदर्शवादी लालसा और स्वप्न है | मैं जैसे अपने आप से मुठभेड़ करता हूँ और रुचि की पेंटिंग्स के स्रोतों को 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' की पोस्टों में तलाशने की कोशिश करता हूँ और जल्दी ही अपनी इस कोशिश को निरर्थक पाता हूँ | अपनी कोशिश को इसलिए भी निरर्थक पाता हूँ क्योंकि मैं गौर करता हूँ कि खुद रुचि को ही 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है और उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिये अब पेंटिंग्स को चुन लिया है | अपनी सुविधा के लिये मैं मान लेता हूँ कि रुचि की पेंटिंग्स के स्रोत वहीं होंगे जहाँ 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' के लिये उन्हें प्रेरणा मिली होगी | इस सोच विचार में लेकिन यह सवाल आ खड़ा हुआ कि एक कलाकृति का अर्थ कैसे निकलता है ? क्या वह विज्ञान या समाजशास्त्र या गणित के सूत्रों या सिद्वान्तों से जो अर्थ निकलता है - उससे अलग है  ? किसी ने कहा है कि कोई भी कलाकृति या तो अपने में संपूर्ण रूप से अभेद्य होती है या हजारों अर्थ खोलती है | ऐसे में जब हम किसी कलाकृति को किसी एक खास अर्थ के साथ नत्थी कर देते हैं, उसी समय हम उसकी समग्र और संश्लिष्ट अर्थवत्ता को नष्ट कर देते हैं |
रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स को देखते हुए पहले तो उनके ब्लॉग 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' की याद आना और फिर उनकी पेंटिंग्स के स्रोतों को 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' में खोजने की कोशिश को निरर्थक पाना/मानना - मैंने निष्कर्ष यह निकाला कि कोई कलाकृति किसी एक खास अनुभव या घटना या आइडियोलॉजी या दर्शन से उत्प्रेरित तो हो सकती है - किंतु एक कलाकृति की सत्ता में उसका अर्थ उस अनुभव या घटना या आइडियोलॉजी या दर्शन के सन्देश या डॉगमा से कहीं अधिक व्यापक और संश्लिस्ट होता है | महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि एक चित्र के ऊपरी बिम्ब या प्रतीक क्या हैं - वह कहीं से भी लिये जा सकते हैं - महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कलाकृति की अर्थवत्ता उन संदर्भों का अतिक्रमण कर पाती है या नहीं - कर पाती है तो एक स्वायत्त इकाई बन जाती है और इस तरह समय के गुजरने के साथ यदि उसके प्रतीक और बिम्ब अप्रासंगिक या अर्थहीन भी हो जाते हैं - तो भी चित्र का कलात्मक अर्थ रत्ती-भर भी मलिन नहीं पड़ता | मुझे लगता है कि जिन दिनों रुचि 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' में दिलचस्पी ले रहीं थीं उन दिनों भी वह दरअसल कलाकारी ही कर रहीं थीं | 'मेमोयर्स फ्रॉम द पास्ट' को उनकी एक कलाकृति के रूप में भी देखा जा सकता है | यहाँ यह भी याद किया जा सकता है कि उन्हीं दिनों उन्होंने बहुत ही प्रयोगधर्मी अपना एक विजीटिंग कार्ड भी बनाया था |
रुचि गोयल कौरा की कलाकृतियों में संवेदना स्वयं अपनी ऊर्जा से पुष्ट होती दिखती हैं | ऐक्य की तलाश ही उनमें जैसे एकमात्र लक्ष्य है | रुचि ने अपनी पेंटिंग्स को जो 'बुना हुआ' और म्युरल-सा रूप दिया है और विविधतापूर्ण रचनासामग्रियों का अपनी पेंटिंग्स में जो इस्तेमाल किया है - उसके चलते मनुष्य और भौतिक जगत की समानता, जड़ पदार्थों और भावनाओं का जो मेल तैयार होता नजर आता है वह सतह को मूल से जोड़ता-सा दिखता है | विविधतापूर्ण रचनासामग्रियों के इस्तेमाल से लगता है कि रुचि जैसे बाह्य यथार्थ को संपूर्ण रूप से ठुकरा कर अपने चित्रों का रेफरेंस अपने भीतर या अपने अहम् में खोजने का प्रयास कर रहीं हैं : क्योंकि अपने से अधिक इस दुनिया में और कौन-सी चीज, नैतिकता, मूल्य या यथार्थ विश्वसनीय और प्रामाणिक हो सकता है | अहम् का एक विस्तृत और समग्र रूप है - जिसे हम सेल्फ या आत्मन कह सकते हैं और यह भौतिक जगत का विरोधी या प्रतिद्वंदी तत्त्व नहीं है : यह अपने सत्य में उस परम का ही अणु है, जो सामाजिक यथार्थ से कहीं ज्यादा व्यापक और सार्वभौम है - जिसमें समूची प्रकृति, समूचा जीव-संसार, समय और इतिहास की धारणाएं शामिल हैं | क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि रुचि ने इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित हुई अपनी पिछली एकल प्रदर्शनी को नाम ही 'अहम्' दिया था | रुचि का काम जीवन के शाश्वत संदर्भों की पड़ताल का मौका देता है और एक बार फिर इस बात को रेखांकित करता है कि कला में जब तक जीवन है, कोई प्रश्न पुराना नहीं पड़ता और कोई उत्तर अंतिम नहीं होता |
रुचि गोयल कौरा की पेंटिंग्स को 26 फरवरी से 3 मार्च के बीच गुड़गाँव की एपिसेंटर कला दीर्घा में 'बियोंड बाउनड्रीज' शीर्षक से शालिनी महाजन व संगीता मल्होत्रा द्वारा क्युरेट की गई समूह प्रदर्शनी में देखा जा सकता है | इस समूह प्रदर्शनी में उनके अलावा आशीष पाही, किशोर चावला, सायरा एच, संगीता मल्होत्रा, वंदना तनेजा, अर्चना भसीन, भावना रस्तोगी और सुरेखा सदाना के काम को भी देखा जा          सकेगा |

Monday, February 22, 2010

सैयद हैदर रजा की कला वस्तुगत स्तर पर समय-काल के परे है, और शैलीगत स्तर पर पूरी तौर से आधुनिक

भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन के अनेक गूढ़ रहस्यों के साथ-साथ जीवन की क्षणभंगुरता में आत्मिक आनंद की प्रतीति को कला का मर्म बना देने वाले सैयद हैदर रजा का आज जन्मदिन है | सैयद हैदर रजा आज अपने जीवन के अठ्ठासी वर्ष पूरे कर रहे हैं | स्थाई रूप से पेरिस स्थित अपने घर में रह रहे सैयद हैदर रजा आजकल भारत आये हुए हैं और आज दिल्ली में हैं | सैयद हैदर रजा ने वर्ष 1922 में आज ही के दिन मध्य प्रदेश के मांडला क्षेत्र के बाबरिया गाँव में ताहिरा बेगम की कोख से जन्म लिया था | उनके पिता सईद मोहम्मद  राजी उस समय डिप्टी फोरेस्ट रेंजर के पद पर थे | बारह वर्ष की उम्र तक वह गाँव में ही अपने माता-पिता के साथ रहे | तेरह वर्ष की उम्र में वह हाई स्कूल करने दमोह गये | हाई स्कूल करने के बाद वह नागपुर स्कूल ऑफ ऑर्ट गये, जहाँ वह 1939 से 1943 तक रहे | 1943 से 1947 तक उन्होंने मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ ऑर्ट में  शिक्षा प्राप्त की | वर्ष 1946 में उन्होंने अपने चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी बोम्बे ऑर्ट सोसायटी की कला दीर्घा में की थी | वर्ष 1947 में उनके जीवन की दो प्रमुख घटनाएँ हुईं : पहले उन्होंने अपनी माँ के निधन का सामना किया और फिर फ्रांसिस न्यूटन सूजा के साथ मिलकर उन्होंने बोम्बे ऑर्टिस्ट ग्रुप का  गठन किया | वर्ष 1950 में फ्रांस सरकार की एक फेलोशिप के तहत वह तीन वर्ष के लिये पेरिस चले गये, जहाँ उन्होंने कला के विश्व-संसार से परिचय प्राप्त किया | कला के विश्व-संसार से परिचय प्राप्त करने के क्रम में हालत कुछ ऐसे बने कि रजा स्थाई रूप से पेरिस में ही बस गये | फ्रांस सरकार से उन्हें कला का सर्वोच्च सम्मान मिला | रजा पहले गैर फ्रांसीसी कलाकार हैं जिन्हें उक्त सम्मान मिला | पेरिस में लंबे समय तक रहने और वैश्विक कला जगत में अपनी प्रखर पहचान बना लेने  के बावजूद रजा का भारत से नाता नहीं टूटा | वह लगातार न सिर्फ भारत आते रहे  बल्कि यहाँ के कला जगत के साथ गहरे से जुड़े भी रहे हैं |
प्रख्यात कलालोचक पॉल गोथिये ने उनका परिचय देते हुए वर्षों पहले लिखा था :
'रजा एक भारतीय कलाकार हैं, जो अब पेरिस में जा बसे हैं |'  सैयद हैदर रजा के मन में फ्रांस सरकार की फेलोशिप मिलने से पहले ही फ्रांस के  प्रति एक उत्सुकता पैदा हो गई थी | रजा ने बताया है कि उन दिनों - उन दिनों  यानि बोम्बे ऑर्टिस्ट ग्रुप के गठन के दिनों में - एक किताब ने उनकी कल्पना को झिंझोड़ दिया था | इरविंग स्टोन की वह किताब थी - लस्ट फॉर लाइफ, जो दरअसल विन्सेंट वॉन गॉग की जीवनी है | रजा को यह तो पता ही था कि विन्सेंट वॉन गॉग एक ऊंचे दर्जे के कलाकार थे, जो फ्रांस में काम करते रहे और वहीं जिनका निधन हुआ था | उन्हीं दिनों - वर्ष 1949 में मुंबई में फ्रेंच कांसुलेट द्वारा आयोजित  जीवित फ्रेंच चित्रकारों के काम की बड़ी अनुकृतियों की एक प्रदर्शनी हुई | रजा  ने समझ लिया था कि कला के विस्तृत स्त्रोतों तक यदि पहुँच बनानी है तो उन्हें फ्रांस जाना ही होगा | पेरिस उन दिनों यूं भी समकालीन कला का एक स्पंदित केंद्र था |
सैयद हैदर रजा ने पेरिस में समकालीन कला की दुनिया से परिचय ही प्राप्त नहीं किया, पेंटिंग को पहचानने का नजरिया भी पाया | उन्होंने स्वीकार किया है कि 1951 - 52 से पहले दरअसल पेंटिंग की असलियत को वह समझते ही नहीं थे | प्रकृति के, रंगों के, लैंडस्केपों के कुछ प्रभाव थे जिन्हें वह एक चित्रनिर्मिति (कंस्ट्रक्शन) में बदल दिया करते थे | उन्होंने कहा है कि यह तो बाद में ही जाना कि आप्टिकल रियलिटी (आँख-यथार्थ) अपने-आप में काफी नहीं है या कि वह पूरा यथार्थ नहीं है | जो चीज चित्र को चित्र बनाती है, वह केवल ऊपर से दीख पड़ने वाली चीज नहीं है | जब चित्र अपनी साँस ले, तभी वह चित्र है | रजा ने 1948 से 1951 तक बहुत काम किया | अपनी पूरी याद के साथ उन्होंने बताया है कि 1949 में उन्होंने करीब तीन सौ चित्र बनाये थे | उन दिनों वह केरल, मद्रास, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, श्रीनगर की कई जगहों तथा कई शहरों में गये थे | वहाँ के जो ढेरों प्रभाव थे और मन में जो ढेरों दृश्य घूमते थे, रजा उन्हें अपने चित्रों में ले आते थे | रजा ने कहा है कि पेरिस पहुँच कर उन्होंने जो देखा / समझा तो पाया कि अभी तक वह जो कर रहे हैं यदि वही करते रहे तो वह तो खो जायेंगे | उन्होंने इस बात को समझा कि उन्हें आप्टिकल रियलिटी से छुटकारा पाना होगा और अपने अंदर की बात ढूंढनी होगी | तब उन्होंने चित्र के आंतरिक जीवन (इनर लाइफ) को तलाशने, चित्र की संगीतात्मक संरचना को समझने, रंगों के साथ एक नया संबंध बनाने का काम शुरू किया; और चाक्षुक यथार्थ (विजुअल रियलिटी) के मर्म को वास्तव में पहचानने का प्रयास किया | रजा ने बहुत साफ शब्दों में स्वीकार किया
है कि सचमुच पहली पेंटिंग उन्होंने पेरिस में 1952 में बनाई |
रजा की कल्पनाशीलता और अभिव्यक्ति को संपन्न करने में फ्रांस की आबोहवा का निस्संदेह बहुत योगदान रहा है; लेकिन भारतीय स्त्रोत उनमें बहुत गहरे और अखंड रूप में मौजूद रहे हैं | पॉल गोथिए ने लिखा है कि इन दोनों संसारों के* *बीच उन्होंने अपनी कला का एक ऐसा पुल बांध लिया है जो न तो आधुनिक कला की विशिष्टताओं को नजरअंदाज करता है, और न ही अपनी जड़ों से कतई कटा हुआ है - उनकी कला वस्तुगत स्तर पर समय-काल के परे है, और शैलीगत स्तर पर पूरी तौर से आधुनिक | सैयद हैदर रजा के बनाये चित्र एक जीवंत सार्वभौमिक कला के भौतिक प्रतिरूप हैं | सैयद हैदर रजा के अठ्ठासीवें जन्मदिन के मौके पर इस बात को रेखांकित करना अच्छा भी लग रहा है और रजा पर व अपने बीच उनकी उपस्थिति पर गर्व भी हो रहा है |

Thursday, February 11, 2010

नंदा गुप्ता ने केनवस पर जो किया है, उसमें हम अपनी संवेदना और समझ को बार-बार कुछ टोहता हुआ पाते हैं

नंदा गुप्ता के चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी 12 फरवरी से नई दिल्ली की गीता आर्ट गैलरी में शुरू हो रही है | इस प्रदर्शनी को 28 फरवरी तक देखा जा सकेगा | नंदा इससे पहले एक समूह प्रदर्शनी में अपने चित्रों को प्रदर्शित कर चुकी हैं, तथा कुछेक आर्ट गैलरीज के संग्रहों में उनका काम उपलब्ध है | इस कारण से कह / मान सकते हैं कि नंदा के काम से कला प्रेक्षकों का पहले से जो परिचय है, उनकी एकल प्रदर्शनी उस परिचय को और प्रगाढ़ बनाने का ही काम करेगी | नंदा के काम से जो लोग परिचित हैं और उनके काम को लगातार देखते रहे हैं उन्होंने, पीछे हुई समूह प्रदर्शनी में प्रदर्शित उनके काम को देख कर महसूस किया कि उनके काम में न सिर्फ विषय-वस्तु बदल रही है बल्कि वह समकालीन कला के मुहावरे को पकड़ने की कोशिश भी कर रहा है | इसीलिए नंदा के चित्रों की एकल प्रदर्शनी को लेकर उनके काम से परिचित लोगों के बीच खासी उत्सुकता है |
नंदा गुप्ता ने अपनी कला-यात्रा लैंडस्केप चित्रों से की थी | उन्होंने मानवीय आकृतियों - खासकर चेहरों और चेहरों पर आते-जाते भावों को चित्रित करने में भी खासी दिलचस्पी ली थी | दरअसल प्रकृति ने उन्हें एक व्यक्ति के रूप में भी और एक चित्रकार के रूप में भी गहरे तक प्रभावित किया है; तथा प्रकृति की जादूगरी व उसकी रहस्यमयता ने उन्हें हैरान भी किया और सवालों में उलझाया भी | इस उलझन ने उन्हें अहसास कराया कि जैसे उनसे कुछ छूट रहा है | उलझन से बाहर निकलने और छूट रहे को पहचानने व उसे बनाये रखने तथा वापस पाने की कोशिश में नंदा आध्यात्म व साधना की शरण में गईं तो जैसे उन्होंने अपने आप को और ज्यादा प्रखरता से जानना व पहचानना शुरू किया | सोच में और जीवन में आ रहे इस बदलाव का असर उनकी पेंटिंग्स पर पड़ना स्वाभाविक ही था और वह पड़ा भी | लैंडस्केप, मानवीय आकृतियों व वास्तविक जीवन की वस्तुओं को अपनी पेंटिंग्स का विषय बना रहीं नंदा ने अचानक से अमूर्त रूपाकारों की तरफ अपना कदम बढ़ा लिया |
नंदा गुप्ता की कला-यात्रा को आगे बढ़ाने और एक सुनिश्चित दिशा देने में कविता जायसवाल तथा सुनंदो बसु की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही | नंदा ने कला की औपचारिक शिक्षा का पहला पाठ कविता जायसवाल से सीखा, जिन्होंने उन्हें कला की बुनियादी बारीकियों से परिचित कराने के साथ-साथ प्रयोगों के लिये व केनवस पर खुलकर 'खेलने' के लिये प्रेरित किया | बाद में, नंदा ने जब सुनंदो बसु के 'स्कूल' में कला प्रशिक्षण पाना शुरू किया तो सुनंदो ने उन्हें केनवस पर किए जाने वाले 'खेल' को व्यवस्थित रूप देने की सीख दी | सुनंदो की उस बात की तो जैसे उन्होंने गांठ बांध ली कि उन्हें इतना काम करना है, काम में ऐसा ध्यान लगाना है कि वह सपने भी देखें तो पेंटिंग के ही देखें | इस का जो नतीजा निकला वह यह कि नंदा के काम की अपनी एक विशिष्ट शैली बन गई और उनकी पेंटिंग्स का मूल स्वभाव पहचाना जाने लगा |
नंदा गुप्ता के नये काम को देख कर लगता है कि उनकी कला में रंग जैसे अपनी एक निश्चित भूमिका बनाना चाहते हैं | उनके प्रायः प्रत्येक चित्र में एक रंग का ही प्रभुत्व मिलेगा, जिसके साथ और एक या दो रंग इस तरह प्रस्तुत किए गये हैं कि दोनों या तीनों आपस में पूरक न बन कर, एक दूसरे को और अधिक उभारें | नंदा के चित्रों को अमूर्त दृश्यचित्र भी कह सकते हैं, क्योंकि उनमें जाने-पहचाने या परिचित लगने जैसे कोई आकार या आकृति नहीं हैं | चित्रों में एक विस्तार, फैलाव भी है जिसे विभिन्न रंगों से, या एक ही रंग की गहरी, घनी या हल्की वर्णच्छ्टा से विभाजित किया है | इस विभाजन में कहीं गहराई बनती है तो कहीं विस्तार आकार लेता है | केनवस पर नंदा ने जो किया है, उसमें हम एक 'अचरज' भी ढूंढ या पहचान सकते हैं | यह अचरज सहज अचरज है | कुछ उसी तरह का जो कुछ चीजें अपने में कई तरह के चित्र विचित्र आकार छिपाये होने के भ्रम से देती हैं; और जिनमें हम अपनी संवेदना और समझ को बार-बार कुछ टोहता हुआ पाते हैं | उनके चित्रों में लेकिन सिर्फ अचरज ही नहीं है | नंदा ने रंगों व रंग-छायाओं का जो एक सुमेल प्रस्तुत किया है, उसमें हम एक उड़ान, मिथक, विश्वास, स्वप्न और कल्पना के कई संदर्भ बनते भी देख सकते हैं |
नंदा गुप्ता ने जिस तेजी से अपनी कला का परिष्कार किया है, उससे कला के प्रति उनकी ललक का और सीखने की उनकी सामर्थ्य का सुबूत भी मिलता है | कला के प्रति अपनी ललक तथा सीखने की अपनी ज़िद को यदि वह लगातार बनाये रख सकीं, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में उनके और उम्दा व परिष्कृत चित्रों को देखने का सुख व सौभाग्य मिलेगा |

Tuesday, February 9, 2010

कोलकाता को देखते हुए, बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव रहा

कोलकाता पहुंचा तो जरूरी कामों की फेहरिस्त में बिकास भट्टाचार्य का काम देखना भी दर्ज था, जिसे मैं किसी भी हालत में पूरा कर लेना चाहता था | बिकास भट्टाचार्य का काम यूं तो मैंने दिल्ली में कई बार देखा है, लेकिन एक बार किसी ने कहा था कि कोलकाता में घूमते / रहते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है | कुछेक वर्ष पहले, यह सुन कर मैंने जैसे ठान लिया था कि जब भी कोलकाता जाऊँगा पहला काम बिकास भट्टाचार्य की पेंटिंग्स देखने का करूंगा | मैंने ठान तो लिया था लेकिन बात आई-गई सी हो गई थी, क्योंकि कोलकाता जाने का कोई मौका ही नहीं मिला | लेकिन लगता है कि जो ठाना था, वह गहरे घर कर गया था; क्योंकि रोटरी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में कोलकाता जाने का प्रोग्राम जब सचमुच बना और कार्यक्रम के स्थानीय आयोजक ने पूछा कि कोलकाता में मैं कहाँ कहाँ जाना चाहूँगा, तो जैसे बेसाख्ता मेरे मुंह से यही निकला की मैं वहाँ बिकास भट्टाचार्य का काम जरूर देखना चाहूँगा | मैं यह सचमुच जानना / समझना चाहता था कि जिस किसी ने भी यह कहा था कि - कोलकाता में घूमते / रहते हुए या कहें कि कोलकाता को देखते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है, वह यूं ही कहा था या उस कहे हुए के कोई खास मतलब भी थे |
बिकास भट्टाचार्य के काम और उनके चित्रकार बनने की कथा ने मुझे यूं भी खासा उद्वेलित किया है | उन्होंने अपनी कला को जिस तरह सामाजिक यथार्थ से जोड़ा और उनके आसपास की ज़िन्दगी व दिन-प्रतिदिन के अनुभव, संवेग, विचार उनके आत्म प्रत्यक्षीकृत हो उनके चित्रों में आकार ग्रहण करते रहे; और जो देश, काल व समाज के यथार्थ के साथ उसकी विसंगतियों व विद्रूपताओं को उजागर करने का जरिया बने - वह बिकास भट्टाचार्य के विजन तथा अपने विजन को केनवस पर ट्रांसफर करने की उनकी कलात्मक सामर्थ्य को प्रकट करती है | उन्होंने यह विजन और सामर्थ्य कहाँ से पाया - इसे जानने / समझने में उनके जीवन के शुरुआती दिनों के उनके संघर्ष की कथा काफी मदद करती है |
बिकास भट्टाचार्य का जन्म सीलन, गंदगी और अभावों से भरी एक मलिन बस्ती के एक बहुत ही साधारण से परिवार में हुआ था | उनके जन्म लेने के कुछ ही समय बाद उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया था | परिवार चलाने के लिये उनकी विधवा माँ को मजदूरी करनी पड़ी | उससे भी मुश्किल से ही गुजारा हो पाता | इसी कारण, बिकास को होश सँभालते-सँभालते ही मजदूरी करने के लिये मजबूर होना पड़ा | बिकास ने बचपन तो जैसे 'देखा' ही नहीं | गरीबी, अभाव, मजबूरी और संघर्ष के बीच ही बिकास ने न सिर्फ होश संभाला, बल्कि अपने जीवन की दिशा भी तय की; और यहीं उनमें कला के बीज पड़े / पनपे | पच्चीस वर्ष की उम्र में बिकास ने अपने चित्रों की जो पहली एकल प्रदर्शनी की, उसने कोलकाता के लोगों के बीच इस कारण से धूम मचाई थी क्योंकि उनके चित्रों में उपेक्षित व शनै-शनै मरते हुए कोलकाता की सच्चाई को उदघाटित किया गया था |
बिकास भट्टाचार्य ने अपनी पहली ही प्रदर्शनी से कोलकाता के कला जगत में अपनी धाक जमा ली थी, जिसके बाद फिर उनके लिये राष्ट्रिय व अंतर्राष्ट्रीय ख्याति बहुत दूर नहीं रह गई थी | बिकास अभी तीस वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी पेंटिंग्स को पेरिस की द्विवार्षिकी में स्थान मिला | इकतीस वर्ष की उम्र में उन्हें ललित कला अकादमी का पुरस्कार मिला | देश-विदेश की अनेकों प्रतिष्ठित प्रदर्शनियों और आर्ट गैलरियों में उनके चित्रों को सम्मानपूर्ण तरीके से स्थान मिला और उन्हें ढेर सारा मान व प्रशंसा | इसके बावजूद बिकास इस सम्मान और प्रशंसा से नहीं, बल्कि अपने काम से पहचाने गये हैं | शहरी बंगाली मध्य वर्ग की मानसिकता को, उसके सामाजिक परिवेश को, उसकी विसंगति व विद्रूपता को जिस गहरी समझ व दोटूक ढंग से बिकास भट्टाचार्य ने केनवस पर चित्रित किया है - वह अपने आप में कला प्रेक्षकों के लिये एक अनोखा अनुभव रहा; और उनके इसी अनोखे अनुभव ने बिकास भट्टाचार्य को बड़ा कलाकार तो बनाया ही, उन्हें खास पहचान भी दी |
बिकास भट्टाचार्य की इस पहचान ने पेंटिंग्स के उद्देश्यपरक होने की बात को स्वीकृति व मान दिलाने का काम भी किया | अन्यथा इस बात को हेय रूप में देखा / माना जाता था | अपने इस काम के जरिये बिकास ने समकालीन कला को एक नई भाषा और एक नया व्याकरण दिया | बिकास भट्टाचार्य का विश्वास चूंकि यथार्थवादी चित्रण में रहा है, इसी कारण से उनके बनाये चित्र प्रायः फोटो जैसे दिखते हैं; हालाँकि कथ्य के अनुरूप उन्होंने अक्सर चित्रों में की आकृतियों का विरूपीकरण भी किया है | उनका मानना और कहना रहा है - जिसे उन्होंने अपने चित्रों में अभिव्यक्त भी किया है - कि चित्र को दर्शक के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए, न कि उसे चित्रकार के विचारों को संप्रेषित करने का काम | बिकास भट्टाचार्य ने कोलकाता में अभाव, गरीबी व मजबूरी के शिकार लोगों के बीच अपना बचपन व किशोरावस्था बिताते हुए जीवन-जगत की जिस सच्चाई को पहचाना उसे ही कलात्मक संवेदना के साथ केनवस पर उकेरा | यही कारण रहा कि उनकी कला ने दर्शक के साथ विश्वास का रिश्ता बनाया | कोलकाता में घूमते / रहते हुए बिकास भट्टाचार्य के काम को देखते हुए इस रिश्ते की व्यापकता व गहराई की और-और परतें मैंने खुलती हुई पाईं तथा पहचानीं |